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कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप
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आचार्य हरिभद्रसूरि ने द्रव्यहिंसा और भावहिंसा की चौभंगी का प्रतिपादन करते हुए भी इस तथ्य को स्पष्ट किया है-(१) एक घटना में द्रव्यहिंसा होती है, भावहिंसा नहीं, (२) दूसरी घटना में भावहिंसा होती है, द्रव्यहिंसा नहीं, (३) तीसरी घटना में द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों होती हैं और (४) चौथी घटना में न द्रव्यहिंसा होती है, न भावहिंसा।।
इस चौभंगी में चौथा भंग तो शून्य है। प्रथम भंग शुभकर्म का द्योतक है, द्वितीय और तृतीय भंग अशुभ कर्म का। मुख्यतया भावहिंसा कषायों के कारण होती है, वही कर्मबन्ध का मुख्य कारण है, द्रव्यहिंसा प्रमादयुक्त शरीर से होती है। वस्तुतः हिंसा की सदोषता हिंसाकर्ता की भावना पर अवलम्बित है। शास्त्रीय परिभाषा में ऐसी अप्रमत्त भाव से हुई हिंसा को द्रव्यहिंसा या व्यावहारिक हिंसा कही गई है। जहाँ भावना शुभ हो, वहाँ हिंसा पापरूप नहीं होती, जहाँ भावना अशुभ हो, प्रमत्त भाव हो, वहाँ हिंसा दोषरूप-पापरूप होती है, उस हिंसा को भावहिंसा कहते है, वह निश्चयहिंसा है।
ओघनियुक्ति में इसी तथ्य को उजागर करते हुए कहा गया है"ईर्यासमिति से युक्त चर्या करने वाले साधक के पैर के नीचे यदि कीट. पतंग आदि क्षुद्र प्राणी आ जाएँ और दबकर मर भी जाएँ, परन्तु उक्त हिंसा के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म कर्मबन्ध भी नहीं बताया है। क्योंकि अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसा व्यापार (प्रयोग) से निर्लिप्त होने के कारण वह अनवद्य-निष्पाप है।"२ बौद्धदर्शन में शुभाशुभत्व का आधार : एकमात्र कर्ता का आशय
... . बौद्धधर्म-दर्शन और धम्मपद में भी इन दोनों प्रकार के कर्मों के शुभाशुभत्व का आधार कर्ता के आशय को मानते हुए कहा है कि "कायिक या वाचिक कर्म कुशल (शुभ) है या अकुशल (अशुभ)? इसका निर्णय करने की कसौटी मानस कर्म (आशय) है।" ..' एक डॉक्टर तीखी धार वाले शस्त्र से रोगी का पेट चीर डालता है, जबकि एक हत्यारा भी अपने शत्रु के पेट में छुरा भोंक कर पेट चीर
१. (क) दशवैकालिक सूत्र, हरिभद्रीयवृत्ति - (ख) विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें-तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (नया संस्करण) (प.
सुखलाल जी) पृ. १७२ से १७५ २. उच्चालियंमि पाए, ईरियासमियस्स संकमट्ठाए।
वावज्जेजकुलिंगी, मरिज्ज वा तं जोगमासज्ज। न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसिओ समए। अणवज्जो उ पओगेण सव्वभावेन सो जम्हा॥ -ओघनिर्युक्त गा.७४८-७४९
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