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५३४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
प्रकार “जो कर्ता विक्षिप्तचित्त, मूढ, अहंकारी, धूर्त, आलसी तथा दूसरे की आजीविका का नाश करने वाला है, दीर्घसूत्री है एवं काम उलटा होने पर विषादमग्न हो जाता है, वह तामस है।" इस प्रकार दान, तप, बुद्धि, त्याग आदि के विषयों में राजस-तामस भाव का भी उल्लेख गीता में है। इससे स्पष्ट है कि गीता कर्ता के अभिप्राय को ही मुख्यता देती है, परन्तु कहींकहीं तत्कालीन समाज में प्रचलित यज्ञ, दान और तपःकर्म पर तथा चारों वर्णों एवं चारों आश्रमों के नियत कर्मों पर विशेष जोर देकर करने की प्ररूपणा भी की है। जैनदर्शन में कर्म के शुभाशुभत्व का मुख्य आधार ः कर्ता का अभिप्राय
जैनदर्शन कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का मुख्य आधार शुभ-अशुभ मनोभाव को मानता है। एक हत्यारा भी मानव का पेट शस्त्र द्वारा चीर डालता है, और एक चिकित्सक भी रोगी के पेट का ऑपरेशन करते समय उसे शस्त्र द्वारा चीरता है, किन्तु दोनों की शस्त्र क्रिया एक-सी होने पर भी दोनों के मनोभावों में अन्तर होने से उसी आधार पर कर्म के शुभत्वअशुभत्व का निर्णय होता है। परन्तु वही डॉक्टर अगर रोगी के पेट पर शल्य क्रिया (ऑपरेशन) करते समय उसको मारने और उसका पर्याप्त धन हड़प जाने की नीयत रखता है, फिर भले ही रोगी मरे नहीं, परन्तु उस डॉक्टर के अशुभ कर्म (पाप) का बन्ध हो जाता है, ज्ञानियों की दृष्टि में वह डाक्टर शुभ कर्म करने वाला नहीं कहलाता है।
इसी प्रकार एक दूसरा डॉक्टर एक रोगी के पेट का ऑपरेशन करता है, उसका हृदय करुणा से परिपूर्ण है, वह चाहता है, रोगी इस शस्त्रक्रिया द्वारा रोगमुक्त हो जाये; किन्तु उसका आयुष्य बल क्षीण हो जाने से डॉक्टर के द्वारा ऑपरेशन के दौरान ही उसकी मृत्यु हो जाती है। ऐसी स्थिति में भी डॉक्टर के अशुभ कर्म का बन्ध नहीं होता, उसके शुभकर्म का ही बन्ध होता है। भले ही स्थूल दृष्टि वाले लोग डॉक्टर को भला-बुरा कहें, उसे कोसें। १. गीता अ. १७/२७-२८ तथा १८/२४-२५,२७,२८ २. (क) अधिष्ठान तथा कर्ता करणं च पृथविधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।। (ख) ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधाकर्मचोदना। ___ करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्म संग्रहः॥ -गीता १८/१४-१८ (ग) यज्ञ दान तपः कर्म न त्याज्य कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥
-गीता १८/५ ३. देखिये-'अहिंसादर्शन' (उपाध्याय अमरमुनि)। में इसका स्पष्टीकरण
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