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________________ ५३२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) रूपों के सम्बन्ध में संक्षिप्त झांकी ही दे रहे हैं। वस्तुतः देखा जाए तो शुभकर्म और अशुभकर्म कारण हैं, और पुण्य-पाप इनके फल हैं। कार्य (फल) में कारण का उपचार करके पुण्य-पाप को ही कर्म कहा जाने लगा। '. शुभकर्म : स्वरूप और विश्लेषण जैनकर्मविज्ञान के अनुसार शुभ (पुण्य) कर्म, शुभ- पुद्गल परमाणु हैं, जो जीव के शुभ परिणामों एवं तदनुसार शुभभावपूर्वक दान, परोपकार, सेवा, दया आदि की क्रियाओं के कारण आकर्षित होकर शुभ आस्रव के रूप में आते हैं और फिर शुभ रागादिवश बंध जाते हैं। तत्पश्चात् अपने विपाक (फल- भोग) के समय शुभ विचारों, शुभ परिणामों और शुभ कार्यों की ओर प्रेरित करते हैं। इसके अतिरिक्त वे आध्यात्मिक, मानसिक, सामाजिक एवं भौतिक विकास के अनुरूप संयोग भी उपस्थित करते हैं। शुभकर्म के प्रभाव से कभी-कभी आरोग्य, सुख-सुविधा, सुख - सामग्री, भौतिक सम्पदा तथा अनुरूप परिवार, मित्रजन, समाज भी उपलब्ध होते हैं, तथा सम्यग्ज्ञानादि धर्माचरण की भावना भी वे जागृत कर देते हैं । ' व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में शुभकर्म (पुण्य) के उपार्जन में दान, अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-प्रवृत्तियों को कारण बताये हैं। स्थानांगसूत्र में पुण्योपार्जन के अन्नपुण्य आदि नौ प्रकार भी बताये हैं । " अशुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण अशुभ कर्म (पाप) का स्वरूप जैनंदृष्टि से इस प्रकार है - जिनसे आत्मा का पतन हो, जो आत्मा को बन्धन में डालें, आत्मा के आनन्द का शोषण करें तथा आत्मशक्तियों का घात करें, वे पापकर्म अशुभकर्म हैं। वास्तव में जिस विचार और आचरण से स्व-पर का पतन, अहित हो एवं अनिष्ट फल प्राप्त हो, वह अशुभ कर्म है, पाप है । 'पापाय परपीडन' इस उक्ति के अनुसार अशुभ (पाप) कर्म अपने और दूसरों के लिए पीड़ा, विपत्ति, दुःख और विनाश का कारण है। अशुभ कर्म के अन्तर्गत हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रहवृत्ति, संग्रहवृत्ति, बेईमानी, अनीति, अत्याचार आदि हैं। जो भी अनैतिक कर्म हैं, वे सब प्रायः अतिस्वार्थ, अतिलोभ, घृणा, १. पुण्य पाप के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी के लिए आस्रव खण्ड में देखिये । २. शुभः पुण्यस्य । - तत्त्वार्थ सूत्र अ. ६ पृ. ३ ३. जैनकर्म - सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश पृ ३८ ४. भगवती सूत्र श, ७ उ. १० ५. "अन्नपुण्णे, पानपुण्णे, लयणपुण्णे, सयणपुण्णे, वत्यपुण्णे, मणपुण्णे, वचनपुणे काय पुणे, नमोक्कारपुण्णे । " - स्थानांगसूत्र, स्थान ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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