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________________ कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप ५३१ कर्म के तीन रूपः शुभ, अशुभ और शुद्ध संसाररूपी समुद्र में भी त्रिविध नाविकों के अनुरूप तीन प्रकार के कर्म हैं- (१) अशुभ, (२) शुभ और (३) शुद्ध। जब तक जीव संसार-समुद्र में है, तब तक उसे यह जानना और समझना आवश्यक है कि ये तीन प्रकार के कर्म कैसे-कैसे होते हैं ? इनका लक्षण और स्वरूप क्या-क्या है ? यद्यपि पूर्वप्रकरण (कर्म, विकर्म और अकम) में हमने इन तीनों पर प्रकाश डाला है, फिर भी इन तीनों में से प्रथम दो को पहचानना और उनसे सावधान रहना बहुत आवश्यक है। क्योंकि तीसरा, जो कर्म का शुद्धरूप है, वह तो सर्वथा अबन्धकारक है, परन्तु ये दोनों बंधकारक हैं। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि ये कैसे-कैसे बँध जाते हैं, जीव की किस प्रकार की गति, मति, परिणति एवं असावधानी से ये उसकी जीवन-नौका में प्रविष्ट हो जाते हैं, और ऐसे चिपक जाते हैं कि. सहसा छूट नहीं पाते। इस दृष्टि से हम पहले कर्म के शुभ और अशुभ रूप का वर्णन करते हैं। पूर्वप्रकरण में शुभकर्म को 'कर्म' अशुभकर्म को 'विकम' और शुद्धकर्म को ‘अकर्म' के रूप में बताया गया था। इन तीनों को दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो क्रमशः पुण्य, पाप और धर्म शब्द से अभिहित कर सकते हैं। शास्त्र में प्रथम दो को शुभानव और अशुभाम्रवरूप तथा अन्तिम को संवरनिर्जरारूप बताया गया हैं। अन्तिम अकर्म या शुद्धकर्म को ईर्यापथिक कर्म भी कहा गया है। पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से तीनों की जैन-बौद्ध-वैदिक दर्शन के साथ संगति - डॉ. सागरमल जैन ने कर्म के इन तीन रूपों का पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से इस प्रकार सामंजस्य बिठाया है-“जैनदर्शन का ईर्यापथिक कर्म अतिनैतिक कर्म है, पुण्य (शुभ) कर्म नैतिक कर्म है और पाप (अशुभ) कर्म अनैतिक कर्म है।" इसी प्रकार गीता और बौद्धदर्शन के साथ भी इनकी संगति इस प्रकार बिठाई है-"गीता का अकर्म अतिनैतिक, शुभकर्म या कर्म नैतिक और विकर्म अनैतिक है। बौद्धदर्शन में अनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक कर्म को क्रमशः अकुशल, कुशल और अव्यक्तकर्म अथवा (दूसरे शब्दों में) कृष्ण, शुक्ल और अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहा गया शुभ और अशुभ कर्म : बनाम पुण्य-पाप वैसे तो हम पुण्य (शुभ कम) और पाप (अशुभ कम) के सम्बन्ध विस्तृत चर्चा आगे के प्रकरणों में करेंगे। यहाँ तो कर्म के इन दोनों शुभाशुभ १. जैन कर्मसिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से साभार उद्धृत पृ. ३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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