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कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५१७
एवं सूक्ष्मतर (तैजस और कार्मण) शरीर तो जीव (आत्मा) के साथ जन्म-जन्मान्तर तक और तब तक रहते हैं, जब तक वह कर्मों से मुक्त नहीं हो जाता।
सकषायी जीव हिंसादि में अप्रवृत्त होने पर भी पापकर्मफलभागी
इसी दृष्टि से 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में कहा गया है कि कोई व्यक्ति निष्क्रिय अवस्था में है, कुछ भी चेष्टा नहीं कर रहा है, किन्तु रागादि के वश है, उसके जीवन में शुद्धोपयोग नहीं है, और न ही वह हिंसादि पापों से किंचिद् भी विरत (निवृत्त) या विरक्त है, ऐसा व्यक्ति बाह्यरूप से हिंसादि न करता हुआ भी हिंसादि पाप कर्म के फल का भागी बन जाता है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति प्रवृत्ति करने से पहले कषाययुक्त होकर हिंसादि कर्म करने में प्रवृत्त होता है, इसके पश्चात् उस प्राणी की हिंसा हो या न हो, उसने अपनी आत्मा की तो भावहिंसा कर ली।
'भगवती सूत्र' में वर्णन आता है कि एक शिकारी किसी मृग आदि पर बाण (शस्त्र) चलाता है, किन्तु दैवयोग से बाण उस पर नहीं लगता। ऐसी स्थिति में वह प्राणी भले ही उसके बाण से न मरा हो, न ही घायल हुआ हो फिर भी उस शिकारी (व्यक्ति) के प्राणातिपातरूप साम्परायिकी क्रिया लग चुकी। फलतः बाहर से निष्क्रियता की स्थिति होने पर भी उसे प्राणातिपात (हिंसा) की क्रिया लग जाती है और पाप कर्म का बंध भी होता है। २
१. (क) "पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावरं । " - सूत्रकृतागंसूत्र श्रु. १ अ. ८ गा. ३ (ख) "पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते तया परिक्कमिज्जासि । "
- आचारांग सूत्र श्रु. १ अ. ४ उ. १ (ग) जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावार्थ उद्धृत पृ. ४९
२. (क) व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायां
म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवे हिंसा ॥ ४६॥
यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथम्मात्मनाऽऽत्मानम् । पश्चाज्जायते न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥ ५१ ॥ अविधायाऽपि हिंसा, हिंसाफल- भाजनं भवत्येकः । कृत्वाऽप्यपरो हिंसा, हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ ४५॥ युक्ताचरणस्य सतो, रागाद्यावेशमन्तरेणाऽपि । न हि भवति जातु हिंसा, प्राण- व्यपरोपणादेः ॥ ४५ ॥
- पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ४६, ४७, ५१, ४५
(ख) व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र श. १ उ. ८ सू. ६५ से ६९
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