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________________ ५१६. कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) पाने के पीछे रही हुई बुद्धि, भावना, नीति, संवेदना इत्यादि भेद से इस कर्मपरावृत्ति से कर्म के बन्धन और क्षय एक-से नहीं होते।" "......परावृत्ति का अर्थ निवृत्ति नहीं, अपितु वर्तन का अभाव है। वृत्ति या वर्तन का अर्थ भी प्रवृत्ति नहीं, अपितु केवल बरतना है। प्रवृत्ति का अर्थ है-विशेष प्रकार के आध्यात्मिक भावों से बरतना, तथा निवृत्ति का अर्थ है-वृत्ति तथा परावृत्ति सम्बन्धी प्रवृत्ति से भिन्न प्रकार की विशिष्ट आध्यात्मिक संवेदना।"२ भ. महावीर की दृष्टि में : प्रमाद कर्म, अप्रमाद अकर्म भगवान् महावीर की दृष्टि में, कर्म का अर्थ-शरीरादि चेष्टा मात्र या प्रवृत्ति मात्र नहीं है और न ही अकर्म का अर्थ-शरीरादि का अभाव या एकान्त निवृत्ति है। 'सूत्रकृतांगसूत्र' में भगवान् महावीर के कर्म और अकर्म के दृष्टिकोण को स्पष्ट किया गया है कि "प्रमाद को ही 'कर्म' (बन्धक कम) कहा गया है, तथा अप्रमाद को 'अकर्म' (अबन्धक कम) कहा है।" इसका फलितार्थ यह है कि कर्म केवल सक्रियता या प्रवृत्तिमात्र नहीं है, किन्तु किसी भी प्रवृत्ति या क्रिया के पीछे अजागृति, प्रमत्तदशा या आत्मस्वरूप के भान का अभाव होना कर्म है, इसी प्रकार अकर्म का अर्थ एकान्तनिवृत्ति या निष्क्रियता नहीं, अपितु प्रवृत्ति या निवृत्ति के साथ सतत जागृति, अप्रमत्तदशा, अथवा आत्म-स्वरूप का भान है। आशय यह है कि अप्रमत्तदशा में या आत्मजागृति के साथ की हुई क्रिया या सक्रियता (प्रवृत्ति) भी अकर्म हो सकती है, जवकि प्रमत्तदशा या आत्मजागृति के अभाव में की हुई निवृत्ति या निष्क्रियता भी कर्म (कर्मबन्धक) हो सकती है।" __ इसीलिए 'आचारांग सूत्र' में कहा गया है-"प्रमत्त को (वीतराग परमात्मा की आज्ञा से-आत्मस्वरूप के भान से) बाहर देख (समझ)। अतः अप्रमत्त होकर सदा पराक्रम (पुरुषार्थ) कर; (यही अकम) है।" एकान्त निष्क्रियता को अकर्म मानने में दोषापत्ति अगर एकान्त निष्क्रियता को ही अकर्म कहा जाएगा तो मृत प्राणी या पृथ्वीकायादि पांच प्रकार के स्थावर जीव स्थूलदृष्टि से निष्क्रिय होने से उनकी निष्क्रियता या निवृत्ति को 'अकर्म' कहना पड़ेगा, जो कर्म-सिद्धान्त से सम्मत नहीं है। जैनसिद्धान्त यह है कि आत्मा निश्चयदृष्टि से अविनाशी और अविनश्वर है। इसलिए स्थूल शरीर चाहे छूट जाए, सूक्ष्म १. जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में कि. घ. मश्रुवाला के प्रकाशित लेख से पृ. २५१ २. वही, पृ. २५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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