SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर ४९९ गया है कि लाभान्तराय आदि के क्षय या क्षयोपशम से बाह्यसामग्री की प्राप्ति होती है। बाह्यसामग्री अपने-अपने कारणों से प्राप्त होती है वस्तुतः बाह्यसामग्री इन (कर्मफलरूप) कारणों से प्राप्त न होकर अपने-अपने कारणों से ही प्राप्त होती है। जैसे—उद्योग, व्यवसाय या मजदूरी करना, धन को विविध व्यवसायों में लगाना, खेती-बाड़ी आदि धंधे करना, चोरी, ठगी, बेइमानी, भ्रष्टाचार, द्यूत आदि अनैतिक उपायों को करना; इत्यादि इन और ऐसे कारणों से बाह्यसामग्री की प्राप्ति होती है । अगर बाह्यसामग्री की प्राप्ति किसी कर्म के कारण हो तो, वह चेतन की तरह जड़ तिजोरी आदि को भी प्राप्त होती, मगर जड़ के रागादि भाव नहीं होता, चेतन के होता है। इसलिए अपने कारणों से बाह्यसामग्री प्राप्त होने पर उनमें रागादि भावों का संवेदन होना कर्म का कार्य है। चेतन ही धनादि बाह्यसामग्री में अहंकार-ममकार करता है । हाँ, बाह्यसामग्री कर्म के उदय में सहायक बन सकती है, इस कारण उसे 'नोकर्म' कहा गया है। अतः कर्म बाह्यसामग्री के संयोग-वियोग का कारण नहीं हैं। उसकी कार्य मर्यादा जीव में विभिन्न भाव उत्पन्न कर देने की है। जीव के विविध भाव कर्म के निमित्त से होते है। इसलिए कहीं-कहीं ये (कर्म) बाह्यसामग्री के अर्जन आदि में निमित्त कारण बन जाते हैं। यही कर्म की कार्य मर्यादा है। ' कर्म और नोकर्म की कार्यमर्यादा का संक्षिप्त विश्लेषण पूर्वोक्त विश्लेषण से हम कर्म और नोकर्म के कार्य को भलीभांति हृदयंगम कर सकते हैं। जीव की विविध प्रकार की अवस्था और भाव होना कर्म का कार्य है, और उनके कारण जीव में वैसी योग्यता होना संभावित है, जिससे वह योगत्रय द्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करके उन्हें शरीरादिरूप में परिणमाता है। अतः धन, सम्पत्ति, महल, बगीचा, राज्य, पुत्र, स्त्री आदि सुखकर वस्तुएँ तथा रोग, शोक, दारिद्र्य, निर्धनता, पीड़ा, ग्लानि, भय आदि दुःखकर वस्तुएँ कर्म के कार्य नहीं है। अर्थात् - न तो धनादि प्राप्त होना सातावेदनीय का परिणाम है और न ही रोगादि असातावेदनीय के १. कर्म और कार्य मर्यादा (पं. फूलचंद जी सिद्धान्त शास्त्री के जिनवाणी में प्रकाशित लेख) से भावांश उद्धृत पृ. २४५-२४६ २. महाबंध पु. २ प्रस्तावना (पं. फूलचंदजी सिद्धान्त शास्त्री) से भावांश उद्धृत पृ. २२-२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy