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४९८ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३).
प्रकार के कर्मों में ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है, जिसका काम बाह्य सामग्री का प्राप्त कराना हो । सातावेदनीय और असातावेदनीय, ये स्वयं जीवविपाकी हैं । 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में इनके कार्य का निर्देश करते हुए कहा गया है - जिस कर्म के उदय से देवादि गतियों में शारीरिक-मानसिक सुख प्राप्ति (सुखानुभव) हो, वह सातावेदनीय है, जिसका फल अनेकविध दुःख है, वह असातावेदनीय है।
इसकी व्याख्या करते हुए वहाँ स्पष्ट किया गया है - " अनेक प्रकार की देवादि गतियों में जीवों को प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्ध की अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकार का सुखरूप परिणाम होता है, वह सातावेदनीय है; तथा नाना प्रकार की नरकादि गतियों में जिस कर्म के फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण, इष्टवियोग- अनिष्टसंयोग, व्याधि, वध और बन्धनादि से उत्पन्न हुआ विविध प्रकार का मानसिक और कायिक दुःखरूप परिणाम होता है, वह असातावेदनीय है । "
तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि में भी सातावेदनीय और असातावेदनीय के स्वरूप के सम्बन्ध में इसी कथन की पुष्टि की है। कर्मग्रन्थ आदि में भी इन द्विविध कर्मों का यही अर्थ किया गया है। '
ऐसी स्थिति में इन कर्मों को अनुकूल तथा प्रतिकूल नोकर्म रूप बाह्यसामग्री के संयोग-वियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है। वस्तुतः बाह्यसामग्री की प्राप्ति अपने-अपने (पूर्वोक्तं निमित्तों- नोकर्मों) कारणों से होती है। इनकी प्राप्ति का कारण कोई भी कर्म नहीं है। बाह्यसामग्री कर्म का कार्य नहीं, क्यों और कैसे ?
तत्त्वतः बाह्यसामग्री न तो सातावेदनीय या असातावेदनीय का ही फल है और न ही लाभान्तराय आदि कर्म के क्षय-क्षयोपशम का ही फल है। इन दोनों मतों को थोड़ा-बहुत प्रश्रय दिया जा सकता है, तो उपचार से ही दिया जा सकता है। स्वर्ग, भोगभूमि और नरक में सुख-दुःख की आधारभूत सामग्री के साथ वहाँ उत्पन्न होने वाले जीवों के साता और असाता के उदय का सम्बन्ध देखकर उपचार से बाह्यसामग्री को साताअसाता फल बतलाया है। इसी प्रकार बाह्यसामग्री से लाभ आदि रूप परिणाम लाभान्तराय आदि के क्षयोपशम का फल जानकर उपचार से कहा
१. (क) कर्म और कार्यमर्यादा (जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित पं. फूलचंद जी के लेख) से पृ. २४४
(ख) “यस्योदयाद् देवादिगतिषु शारीर- मानस - सुख प्राप्तिस्तन् सद्वेद्यम्, यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसदवेद्यम् ।' - तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६/१२-१३ पृ. ३०४
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