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________________ ४८८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३). आत्मशक्ति प्रतिबन्धक एवं आवरक समझते हैं, इसी प्रकार शरीर और शरीर से सम्बद्ध माता-पिता, परिवार, पत्नी, पुत्रादि सजीव तथा धन मकान, जमीन-जायदाद आदि निर्जीव पदार्थों के विषय में भी कह देते है। कि ये भी बन्धनकारक हैं। प्रश्न यह है कि क्या जैनदर्शन इन सब पदार्थों को बन्धनकारक, आत्मगुणघातक या आत्मशक्ति-प्रतिबन्धक मानता है ? क्या आत्मा इनके बन्धन में बंध जाती है? नोकर्म के दो प्रकार : बद्धनोकर्म, अबद्धनोकर्म जैनकर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने इसका समाधान इस प्रकार किया है-शरीर और शरीर से सम्बद्ध परिवार, धन-सम्पत्ति, साधन, इन्द्रियाँ, अंगोपांग आदि सबको नोकर्म कहा गया है। ___नोकर्म भी दो प्रकार के हैं-बद्धनोकर्म और अबद्धनोकर्म। संसारी दशा में जहाँ शरीर है, वहाँ आत्मा है, दोनों एक दूसरे के साथ बंधे हुए तथा दूध-पानी की तरह परस्पर मिले हुए हैं। शरीर (चारों शरीर) आत्मा से बंधे हुए होने के कारण बद्ध-नोकर्म हैं। इसके विपरीत जो शरीर की तरह आत्मा के साथ सम्पृक्त-संयुक्त नहीं रहते, न ही वे सब आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह एकमेक होकर रहते हैं, और न शरीर की तरह सदैव और सर्वत्र साथ रहते हैं, अर्थात् ये निश्चितरूप से हर समय, हर क्षेत्र में साथ नहीं रहते; इसलिए ये अबद्धनोकर्म कहलाते हैं। धन-सम्पत्ति, परिवार, मकान आदि अबद्धनोकर्म हैं।' दोनों प्रकार के नोकर्मों में आत्मा को बाँधने की शक्ति नहीं बद्ध हो या अबद्ध, दोनों ही प्रकार के नोकर्मों में आत्मा को स्वयं बाधित करने, बाँधने तथा आत्मशक्तियों या आत्मगुणों का घात करने की शक्ति नहीं है। इनकी क्या ताकत है कि ये अनन्त शक्तिशाली आत्मा को बाँध लें ? यदि इनमें आत्मा को बाँधने की शक्ति होती तो ये भगवान् महावीर आदि तीर्थंकरों, केवलज्ञानी महापुरुषों या महामुनियों या भरतचक्रवर्ती जैसे ऋद्धि-वैभवसम्पन्न व्यक्तियों को भी बांध लेते, मुक्त न होने देते। भगवान् महावीर के पास कर्मफलभोगरूप में शरीर, इन्द्रियाँ, भूमि, आकाश आदि कई नोकर्मरूप पदार्थ थे और रहे, फिर भी वे उन्हें नहीं बाँध सके। अतः बन्धन न शरीरादि में है, न इन्द्रिय-अंगोपांग आदि नोकर्मों में है। समयसार के अनुसार वस्तुओं से कर्मबन्ध नहीं होता, बन्ध होता है-रागद्वेषयुक्त अध्यवसाय-संकल्प से। १ २ कर्ममीमांसा (स्व. युवाचार्य श्री मधुकरमुनि) से पृ. ३० ण य वत्युदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोऽत्यि । -समयसार २६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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