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कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर ४८७
कर्म से पृथक नोकर्म-संज्ञा क्यों?
जिस प्रकार कारण में कार्य का उपचार करके कार्मणशरीर को 'द्रव्यकम' कहा गया है, उसी प्रकार औदारिक आदि शरीरों को द्रव्यकर्म कहा जा सकता है। परन्तु कार्मणशरीररूप द्रव्यकर्म जिस प्रकार आत्मा की शक्ति का घात करता है, उस प्रकार ये (द्रव्य) कर्म आत्मा की शक्ति का घात नहीं करते। यही कारण है कि इन्हें 'कर्म' न कहकर आचार्यों ने 'नोकर्म' की संज्ञा दी है। 'नोकर्म शब्द की व्याख्या
गोम्मटसार में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'नो' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है-विपर्यय अर्थ में और ईषत् या किञ्चित् अर्थ में। चूँकि कार्यणशरीर की भांति ये चार शरीर (औदारिकादि) आत्मा के गुणों का घात नहीं करते, अथवा गति आदि में परिभ्रमणरूप से पराधीन नहीं कर सकते, इसलिये 'कर्म' से इसका (नोकर्म का) लक्षण विपरीत होने से इन्हें नोकर्म कहा गया है; अर्थात्-इनमें कर्म का निषेध या कर्म से विपर्यय होने से इन्हें अकर्मशरीर कहा गया है। अथवा कर्मशरीर के ये सहकारी हैं, इसलिए इन्हें नोकर्म अर्थात्-ईषत् कर्म-शरीर कहा है। अतः समस्त शरीरों की उत्पत्ति के मूल कारणभूत कार्मणशरीर को कर्म (द्रव्यकम) और शेष शरीरों को 'नोकर्म' कहा है। क्योंकि औदारिकादि चारों शरीर कर्मशरीर के सहकारी होते हैं। तात्पर्य यह है कि 'नोकर्म' कर्म तो नहीं है, किन्तु कर्म का सहायक है। 'नोकर्म' कर्म के फल-प्रदान में अथवा कर्म के उदय में सहायक तत्त्व है। क्या कर्म की तरह नोकर्म भी बन्धनकारक है?
कई जैनकर्मविज्ञान से अनभिज्ञ लोग कर्म और नोकर्म को एक समझ लेते हैं और जिस प्रकार कर्म को बन्धनकारक, आत्म-गुण-घातक,
१ (क) कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से पृ. १२६
(ख) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द जैन) से पृ. १९७ २. (क) “नोशब्दस्य विपर्यये ईषदर्थे च वृत्तेः। तेषां शरीराणा
कर्मवदात्म-गुण-घातित्व-गत्यादि पारतंत्र्य-हेतुत्वाभावेन कर्म-विपर्ययत्वात् कर्मसहकारित्वेन ईषत्कर्मत्वाच्च नोकर्म शरीरत्व-सम्भवात् नो-इन्द्रियवत्॥"
-गोम्मटसार जीवकाण्ड (जीवतत्त्वप्रबोधिनी) गा. २४४/५०८/२ (ख) सर्व शरीर-प्ररोहण-बीजभूतं कर्मिणशरीरं कर्मेत्युच्यते ।
-तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि २/२५/१८२/८ ३ (क) कर्मवाद से पृ. ९३ ... (ख) कर्म-मीमांसा (स्व. युवाचार्य मधुकर मुनि) से पृ. ३०
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