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२६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) अद्वैतवादी परम्परा भी आत्माको प्रति व्यक्ति भिन्न नहीं मानती
इसके पश्चात् वेदान्त-धारा में अनात्माद्वैत, आत्माद्वैत आदि मान्यताओं का विकास हुआ।
प्राचीन जैनागम, बौद्ध त्रिपिटक, सांख्यदर्शन आदि भी इस तथ्य के साक्षी हैं कि उस युग में दार्शनिक विचारकों की इस अद्वैतधारा के समानान्तर द्वैतधारा भी प्रचलित थी। वे जड़ और चेतन को, ब्रह्म और माया को, पुरुष और प्रकृति को एक नहीं मानते थे। वे मानते थे कि चेतन
और अचेतन अथवा जीव और अजीव या आत्मा और अनात्मा (आत्मबाह्य पदार्थ) अथवा नाम और रूप दोनों एक नहीं, पृथक्-पृथक् हैं। इनका स्वभाव, इनके गुण पृथक्-पृथक् हैं। इनके लक्षणो में रात और दिन का अन्तर है। अतः आत्मा (जीव) एक स्वतंत्र पदार्थ है, वह सचेतन है, अमूर्त. है, जबकि अजीव (जंड़ या पुद्गल) अचेतन है, जड़ है, मूर्त है। दोनों परस्पर विरोधी तत्व हैं।
इसके अतिरिक्त द्वैतपरम्परा में एक चेतन और दूसरा उसका विरोधी अचेतन (जड़) यों दो तत्त्व माने गए, किन्तु चेतन तत्त्व से उन्होंने जगत के समस्त चेतनाशील आत्माओं को, तथा अचेतन तत्व से जगत् के समग्र जड़ पदार्थों को एक में ही समाविष्ट कर लिया। यह जैन और सांख्य दर्शन से विपरीत है, क्योंकि इन दोनों के मत में व्यक्तिभेद से चेतन भी अनेक हैं
और अचेतन पदार्थ भी अनेक हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शन भी इस मान्यता के समर्थक हैं।' स्वतंत्र आत्मवादियों की विचारणा
कहना चाहिए कि इस बहुवादी द्वैत विचारधारा के समर्थक जितने भी दर्शन हैं, वे स्वतंत्र आत्मवादी हैं। अर्थात्-वे आत्मा को अचेतन पदार्थ से भिन्न स्वतंत्र तत्त्व मानते हैं। इन्हें ही आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को मानने वाले कहना चाहिए। उन्होंने आत्मा को इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, १ (क) सूत्रकृतांग १/१/१/७-८
(ख) ब्रह्मजाल सूत्र (ग) अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं ।
-सूत्रकृतांग २/१/९, २/१/१० २ बृहदारण्यक १/५/२१ ३ बृहदारण्यक १/५/२२/-२३ ४ (क) न्यायसूत्र ३/१/१६
(ख) न्यायवार्तिक पृ. ३३६ (ग) अन्योऽन्तरात्मा मनोमयः ।
- तैत्तिरीयउपनिषद् २/३ (घ) तेजोबिन्दु उपनिषद् में मन को ही जीव, संकल्प, काल, जगत् आदि माना गया है।
-५/९८/१०४
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