________________
आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक २५
मूलभूत एक या अनेक जितने भी तत्त्व हैं, उनमें आत्मा नाम का कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनके मत में आत्मा कोई मौलिक तत्त्व नहीं है। चार भूतों या पंचमहाभूतों के यथायोग्य मिश्रण से इन्द्रियों आदि में स्वतः चेतना स्फुरित हो जाती है। उस चेतना को वे शरीर-सम्बद्ध या शरीरगत चेतना मानते हैं। विविध इन्द्रियों द्वारा अपनेअपने विषयों का ग्रहण और ज्ञान होता है, वह सब वे उसी चेतना की बदौलत मानते हैं।
आत्मा के पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व के सम्बन्ध में विवाद
अतः न्यायवार्तिककार के अनुसार आत्मा के अस्तित्व के विषय में सामान्यतया विवाद नहीं है, विवाद है - आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व के विषय में । ' जैसे कि चार्वाक चार भूतों से उत्पन्न चैतन्य विशेष को ही आत्मा मानते थे और शरीर के विनाश के साथ ही उसका विनाश मानते थे । तज्जीव- तच्छरीरवादी शरीर को ही आत्मा (जीव ) कहते थे। इसी प्रकार कोई दार्शनिक इन्द्रिय को, कोई मन को, कोई बुद्धि को और कोई संघात को' आत्मा मानता था। कोई आत्मा को 'अणु' कहता था। जब तक वैचारिक शक्ति का समुचित विकास नहीं हुआ था, तब तक उस युग के सामान्य चिन्तकों की दृष्टि बाह्य विषयों - इन्द्रियग्राह्य तत्त्वों को ही मौलिक तत्त्व मानती रही। यही कारण है कि उपनिषदों में ऐसे अनेक विचारकों का चिन्तन मिलता है, जिन्होंने जल अथवा वायु' जैसे इन्द्रियग्राह्य भूत तत्त्वों के ही विश्व के मूल तत्त्व माने । आत्मा जैसे किसी अदृश्य पदार्थ को मूल तत्त्वों में स्थान नहीं दिया। जब विचार शक्ति का समुचित विकास हुआ, तब कुछ विचारकों की दृष्टि बाह्य तत्त्वों से हटकर आत्माभिमुख हुई, तब वे विश्व के मूल को अपने अन्तर् में ही खोजने लगे। वे अब प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द को मौलिक मानने लगे। इस प्रकार आत्म-विचारणा की उत्क्रान्ति करते-करते उन्होंने ब्रह्म या आत्माद्वैत तक प्रगति की ।
कितने ही आधुनिक विद्वानों का मन्तव्य है कि - आचारांग सूत्र में के लिए प्रयुक्त प्राण, भूत, सत्त्व आदि शब्द इसी आत्म-विचारणा की उत्क्रान्ति के सूचक कहे जा सकते हैं।
५
१ देखिये - गणधरवाद (प्रस्तावना) (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. ७४
२ न्यायवार्तिक पृ. ३६६
•
३ (क) बृहदारण्यक ५/५/१, (ख) छान्दोग्य उपनिषद् ४/३
४ छान्दोग्य उपनिषद् १/११/५, ४/३/३, ३/१/५/४
५ सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं
अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ।
- आचारांग श्रु. १ अ. १ उ. ६
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org