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क्या कर्म महाशक्तिरूप है ?
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कर्मविजेता बनकर निराश हताश, कर्म- पराजित, कर्मफल से उद्विग्न जन-मानस को यह आश्वासनपूर्ण सन्देश दिया कि "महर्षिगण तप और संयम के द्वारा अपने पूर्वकृत कर्मों को क्षीण कर - उन्हें परास्त करके समस्त दुःखों को नष्ट करने का पराक्रम करते हैं। " १
आत्मविरोधी कर्म - महाशक्ति पर विजयी ही सच्चा विजेता
उन्होंने कहा कि "दुर्जय संग्राम में लाखों (सुभटों) को जीतने वाला सच्चा विजेता नहीं, प्रत्युत अपने आप को अर्थात् आत्मा के विरोधी कर्मों तथा कषायादि विकारों को जीतने वाला ही सच्चा विजेता है । पाँचों इन्द्रियों (विषयों के प्रति राग-द्वेष) को तथा क्रोधादि चार कषायों को, यानी इनके कारण अशुद्ध बने हुए दुर्जय आत्मा और उसके दुर्जय कर्मों को जिसने जीत लिया, उसने सब कुछ जीत लिया । " २
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निष्कर्ष यह है कि यद्यपि कर्म महाशक्तिरूप है, किन्तु जब आत्मा को अपनी अनन्त शक्तियों का भान हो जाता है और वह भेदविज्ञान का महान् अस्त्र हाथ में उठा लेता है और तप-संयम में पुरुषार्थ करता है, तो कर्म उसका कुछ भी बाल बांका नहीं कर सकते । वस्तुतः विजयी होने का श्रेय अन्ततः आत्मा को ही मिलता है।
१. खवित्ता पुव्वकम्माई संजमेण तवेण य । सव्व- दुक्ख पहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो ॥
२. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एवं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ पंचिंदियाणि कोह माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चैवमप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ॥
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- उत्तराध्ययन २८/३६
- उत्तराध्ययनसूत्र ९ / ३४, ३६
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