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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
कर्मशक्ति पर आत्मशक्ति विजयी न हो तो साधना निरर्थक
'कर्मशक्ति पर आत्मा की शक्ति की विजय अवश्य हो सकती है, . अगर इस मान्यता को ठुकरा दें तो कठोर तपश्चरण, उत्कृष्ट त्यागवैराग्य, संयम, परीषहजय, चारित्रपालन, रत्नत्रय-साधना आदि सब में पुरुषार्थ करना निरर्थक हो जाएगा। उस पुरुषार्थ का तथा साधुधर्म और श्रावकधर्म के पालन का क्या अर्थ रह जाएगा? जब साधक को सदैव पराजित खिलाड़ी या हारे हुए पहलवान ही रहना है, यदि उसके भाग्य में : सदा हार ही लिखी है, तब फिर कर्मों के साथ संघर्ष करने, कषायादि विकारों के साथ युद्ध करने और धर्मसाधना में पुरुषार्थ करने का क्या प्रयोजन रह जाएगा? कर्मविजेता तीर्थंकरों ने कर्मशक्ति पर विजय का सन्देश दिया
किन्तु जैनधर्म के समस्त तीर्थंकरों ने अनेक जन्मों में मनुष्य जन्म पाकर पूर्वकृतकों की निर्जरा करने और नये कर्मों को आने से रोकने (संवर करने) का अनवरत पुरुषार्थ किया है और सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष प्राप्त करने की साधना की है। और उन्होंने मोक्ष का लक्षण भी समस्त कर्मों का क्षय हो जाना बताया है। उसकी प्रक्रिया भी पूर्वकर्म-क्षय और नूतन कर्मनिरोध की बताई है। जैनागमों में यत्र-तत्र कहा गया है कि तपश्चरण से पुरातन पापों का ध्वंस तथा कोटिजन्मों के संचित कर्मों का क्षय होता है। उन्होंने स्पष्ट उद्घोषणा की है कि बाह्याभ्यन्तर तपश्चर्या के अमोघ शस्त्र से कर्मजाल को छिन्न-भिन्न करके आत्मा सदा-सर्वदा के लिए वीतराग, कर्मविजेता और कर्ममुक्त बन सकता है।
कहा भी है-जैसे स्वर्ण में रहे हुए मल को अग्नि का ताप, तथा दूध और पानी को हंस की चोंच पृथक् कर देती है, वैसे ही प्राणी के कर्ममल को तपस्या पृथक् कर देती है।
अनन्त-अनन्त तीर्थकर और वीतराग-पथानुगामी असंख्य साधु, साध्वियों की आत्मा ने कर्मशक्ति पर विजय प्राप्त की है। उन्होंने सच्चे
१. कर्मवाद : एक अध्ययन (सुरेशमुनि) से सारांश २. (क) कृत्स्न कर्म क्षयो मोक्ष-तत्वार्थसूत्र १०/३
(ख) 'तवसा धुणइ पुराणपावगं।' (ग) 'तवेण वोदाणं जणयइ।' (घ) भवकोडी-संचियं कम्म तवसा निजरिज्जइ।
(ङ) 'एवं भावुवहाणेणं सुज्झए कम्ममट्ठविहं।' ३. मलं स्वर्णगतं वह्निः, हंसः क्षीरगत जलम्।
यथा पृथक् करोत्येव जन्तोः कर्ममल तपः।।
- उत्तरा. २९/२७
-उत्तरा. ३०/६ -आचारागनियुक्ति २८२
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