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________________ ४३८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) बनाकर एक श्वास में १८ बार शरीर के निर्माण और ध्वंस द्वारा जीवन-मरण को प्रदर्शित करती है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया है"(कर्मरूप) पुद्गल द्रव्य की कोई ऐसी अपूर्वशक्ति दिखाई देती है, जिसके कारण जीव का केवलज्ञान-स्वभाव भी विनष्ट हो जाता है।" कर्मशक्ति : धनादि सभी शक्तियों से बढ़कर संसार में धनबल, पशुबल, जनबल, भुजबल आदि अनेकविध शक्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु कर्म की शक्ति इन सबसे प्रबल एवं प्रचण्ड मानी गई है। इसी दृष्टि से भगवती आराधना में कर्म की बलवत्ता बताते हुए कहा गया है-"जगत् के सभी बलवानों से कर्म बलवान् है। कर्म से बढ़कर संसार में कोई बलवान् नहीं है। जैसे-हाथी नलिनीवन को नष्ट कर देता है, वैसे ही 'कर्मबल'२ समस्त बलों का मर्दन कर देता है। परमात्म-प्रकाश में भी स्पष्ट कहा गया है-कर्म ही इस पंगु आत्मा को तीनों लोकों में परिभ्रमण कराता है। कर्म बलवान् है। वे बहुत हैं। उन्हें विनष्ट करना अशक्य हो जाता है। वे चिकने, भारी और वज्र के समान दुर्भेद्य होते हैं। कर्मशक्ति के सम्मुख मनुष्य की बौद्धिक और शारीरिक शक्ति अथवा जितनी भी अन्य भौतिक शक्तियाँ हैं, वे सबकी सब धरी रह जाती हैं। अन्य सब भौतिक शक्तियों को कर्मशक्ति के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। क्या जैनागम, क्या महाभारत और क्या अन्य धर्मग्रन्थ सभी इस तथ्य के साक्षी हैं कि कर्मरूपी महाशक्ति के सम्मुख मनुष्य की सारी शक्तियाँ नगण्य हैं, तुच्छ हैं। __ मनुष्य बहुत-सी लम्बी-चौड़ी योजनाएँ तैयार करता है, आकाश-पाताल एक कर देता है। मृत्यु से बचने के लिए, जीवन में आने वाले संकटों से सुरक्षा के लिए, तथा अपने धन, जन आदि की रक्षा एवं वृद्धि के लिए अनेक उपाय सोचता है और अजमाता है, किन्तु जब उसे कर्म का प्रचण्ड शक्तिशाली दैत्य आ घेरता है, तब उसके सारे मनसूबे, एवं समस्त उपाय धूल में मिला देता है। इतिहास इस तथ्य-सत्य का पूर्णरूप से १. का वि अपुव्वा दीसदि पुग्गल-दव्वस्स एरिसी सत्ती। केवलणाण-सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा २११ २. "कम्माई बलियाई बलिओ कम्माद णत्थि कोइ जगे।। सव्व बलाई कम्म मलेदि, हत्थीव णलिणिवनं ॥" - भगवती आराधना गा. १६२१ ३. परमात्म-प्रकाश (मूल) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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