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________________ क्या कर्म महाशक्तिरूप है ? ४३७ उससे भी पांच-सौ गुनी शक्ति वाला हाइड्रोजन बम निकला है। भौतिक विज्ञानवेत्ताओं का प्रयत्न राई के दाने से भी छोटा बम बनाने का हो रहा है। वह एक ही बम सारे विश्व का सर्वनाश कर सकता है। ___इसीलिए पंचाध्यामी (उ.) में कहा गया है-"कर्म की शक्ति आत्मा की शक्ति में बाधक है।" तात्पर्य यह है कि जड़ पुद्गल में भी अनन्त शक्ति होती है। इस कारण वह आत्मा की प्रचण्ड शक्ति को तथा आत्मा के अनन्त निजीगुणों को भी दबा सकने में समर्थ होता है। कर्म शक्ति यद्यपि जड़ है, तथापि चेतना शक्ति को आबद्ध करने के इसके प्राबल्य तथा परिणाम में इसका ताण्डव अत्यधिक शोचनीय एवं कल्पनातीत देखा जाता है। समयसार में कहा गया है-कर्म की बलवत्ता से जीव के रागादि परिणाम अबुद्धिपूर्वक भी होते हैं। सूक्ष्म कर्म-परमाणुपुंज में अनन्त प्रकार की परिणाम-प्रदर्शन शक्ति यद्यपि आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, फिर भी उसे बाँधने वाली कर्म-वर्गणाओं (कार्मणवर्गणाओं) का पुंज अत्यन्त सूक्ष्म है। उस सूक्ष्म कर्मपुंज में अनन्त प्रकार के परिणमन-प्रदर्शन की शक्ति है। बद्ध-आत्मा के साथ मिली हुई कार्मणवर्गणाओं में अनन्तानन्त प्रदेश कहे गए हैं, जो अभव्य जीवों से भी अनन्त गुणे हैं। तथा सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियगोचर नहीं हैं। उनमें विद्यमान कर्म-शक्ति (Karmicenergy) अद्भुत चमत्कार दिखाती है। यह दुष्ट कर्मशक्ति ही है, जो ग्यारहवें गुणस्थान में उपशम श्रेणी पर चढ़े हुए श्रुतकेवली जैसे महापुरुष को भी अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण कराती है। समयसार में यहाँ तक कहा गया है कि कर्म मोक्ष के हेतु (ज्ञानादि) का तिरोधान करने वाला है। कर्मशक्ति के प्रभाव से चतुर्दश पूर्वज्ञानधारक महापुरुष भी प्रमादवश अनन्तकाल तक भवभ्रमण करते हैं।' कर्मशक्ति आत्मा की अनन्त ज्ञानशक्ति को ढककर अक्षर के अनन्तवें भाग-परिमित बना देती है। यह (आयु) कर्म की ही प्रचण्ड शक्ति है, जो अपने प्रभाव से किसी जीव को अपर्याप्तक निगोद पर्याय वाला जीव १. पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ३२८ २. समयसार १७२/क. ११६ (पं. जयचंद जी). आत्मतत्त्व विचार (विजयलक्ष्मण सूरी जी) से पृ. २८० ४. (क) महाबंधो भा. १ (प्रस्तावना) (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) से पृ. ७४-७५ (ख) आरूढाः प्रशमश्रेणिं श्रुतकेवलिनोऽपि च। . भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो! दुष्टेन कर्मणा।" -जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में उद्धृत पृ. १२३ (ग) समयसार १५७-१५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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