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________________ कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप ४२९ मोहम्मद साहब ने कहा-"बस, इसी प्रकार तुम प्रत्येक कर्म करने में तो स्वतंत्र हो, परन्तु कर्म करने के साथ ही वह तुम्हें बंधन में जकड़ देगा।" कर्म करने की स्वतंत्रता का फलितार्थ निष्कर्ष यह है कि एक बार कर्म करने के पश्चात् जो भी परिणामबंधन आ पड़े, वह व्यक्ति को स्वीकारना ही पड़ता है। कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है, इसका अभिप्राय यह है कि कर्म करना, न करना, कैसा करना, कैसा कर्म न करना? इत्यादि विचारपूर्वक शुद्धबुद्धि का उपयोग करके कर्म में प्रवृत्त होने में मनुष्य स्वतंत्र है, परन्तु उसका फल भोगने में वह परतंत्र है। उसकी इच्छा फल भोगने की न हो तो भी उसे वह फल बरबस भोगना ही पड़ेगा। उसमें टालमटूल, आनाकानी या किनाराकसी नहीं चलेगी। दृष्टान्त द्वारा कर्म करने में स्वतंत्रता, फलभोग में परतंत्रता का स्पष्टीकरण एक व्यक्ति किसी के यहाँ मेहमान बना। यजमान ने उसके लिए खीर, पूड़ी, दो साग, पकौड़े, चौला, चबैना, अचार आदि अनेक खाद्य पदार्थ बनवाकर उसकी थाली में परोस दिये। अब वह मेहमान क्या खाने, क्या न खाने और कौन सी चीज कम या अधिक खाने में स्वतंत्र है। जो चीज मेहमान अधिक खाना चाहता है, उसे यजमान प्रेम से अधिक से अधिक परोसता जाता है। कौन-सी वस्तु मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल है? इसका ध्यान मेहमान को रखना चाहिए। मेहमान यह जानते हुए भी कुपथ्यकारक चीज अधिक खाता है, इसे खाने में वह स्वतंत्र है। परन्तु इसके परिणामस्वरूप मेहमान को टट्टियाँ लगने लगीं। अब दिनभर शौच जाने के लिए वह परतंत्र हो गया। अर्थात्-कुपथ्यकारक चीज खाने में मेहमान स्वतंत्र था, लेकिन उसके फल भोगने में वह परतंत्र है, वह फल भोगने से बच भी नहीं सकता। कर्म : परतंत्रता कब होते हैं, कब नहीं ? . इसका फलितार्थ यों तो राग-द्वेष-कषाय-युक्त परिणामों से किये गए समस्त कर्म बन्धनकारक परतंत्रकर्ता है, परन्तु वे तभी परतंत्रता में डालने वाले होते हैं, जब वे कर्ता द्वारा कर लिये जाते हैं। बद्ध होने से पहले तक मनुष्य कर्म करने में पूर्ण स्वतंत्र है। मनुष्य सज्जन या दुर्जन बनने, दान १. (क) कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से पृ.७६ (ख) कर्मवाद से पृ. ८७ २. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से पृ. ७५-७६ ३. वही, पृ. २६ से सारांश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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