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________________ कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप आत्मा शुभाशुभ कर्मों को करने, भोगने तथा क्षय करने में समर्थ - स्वतंत्र तात्पर्य यह है कि प्रभुत्व शक्ति सम्पन्न आत्मा (सभी जीव) अपने अच्छे-बुरे कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। जीव शुभकर्मपूर्वक अपना पूर्ण विकास करके अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर सकता है, और इसके विपरीत दुष्कर्म करके अभव्य ही बना रह सकता है। प्रभु प्रवृत्ति के द्वारा ऐश्वर्यशाली बनना, शुभपदार्थों का उपभोग करना, अनन्त सुख (असीम आनन्द) का अनुभव करना भी आत्मा के हाथ में है, और दुष्प्रवृत्ति करते हुए दीन-हीन - पराधीन बनकर असीम- अगणित दुःखों को भोगने तथा जन्ममरण के चक्र में घूमते रहने का सामर्थ्य भी आत्मा में है। पंचास्तिकाय की तत्त्वदीपिका व्याख्या में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है- “आत्मा निश्चयनय की दृष्टि से भावकर्मों को और व्यवहारनय की अपेक्षा से द्रव्यकर्म तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष को प्राप्त करने में स्वयं (आत्मा) ही ईश (समर्थ) होने से 'प्रभु' है। आत्मा के प्रभुत्वगुण के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा स्वयं प्रभु – समर्थ है, वह अपने शुभाशुभ कर्म करने, तथा उन कर्मों का निरोध एवं क्षय करने के लिए स्वयमेव स्वतंत्र है, समर्थ है । बन्धन में भी वह स्वयं बँधता है और मुक्त होने में भी स्वयं समर्थ = स्वतंत्र है । ' आत्मा के 'प्रभु' विशेषण की व्याख्या से इस वैदिक विचारधारा का भी खण्डन हो जाता है कि “अज्ञ जीव अपने सुख-दुःख को पाने और भोगने में समर्थ नहीं है, ईश्वर की प्रेरणा से ही वह (अज्ञजीव) शुभ-अशुभ कर्म करता है और ईश्वर ही उसे बंधन में बांधता और मुक्त करता है। वही उसे स्वर्ग या नरक में भेजता है। इसका फलितार्थ यह हुआ संसारी जीव कर्माधीन नहीं, ईश्वराधीन हैं।"२ ४२३ उत्तराध्ययन सूत्र की यह गाथा भी पूर्वोक्त तथ्य का समर्थन करती है कि आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का स्वयं कर्त्ता है और स्वयं ही विकर्त्ता - क्षयकर्त्ता या भोक्ता है। सत् प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र हैं और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। इस पर से भी यह सिद्ध होता है कि आत्मा सुखजनक और दुःखजनक दोनों ही प्रकार के कर्मों क़ो करने और उनका फल भोगकर क्षय करने में स्वतंत्र है। अपने आपको शत्रु या मित्र बनाना भी आत्मा के अपने हाथ में है । १. पंचास्तिकाय, तत्त्वदीपिका गा. २७ २. ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा । अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः ।। ३. "अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय- सुप्पट्ठिओ ॥” Jain Education International - स्याद्वाद मंजरी कारिका ६ - उत्तराध्ययन २०/३७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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