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________________ ४२२ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराद स्वरूप (३) ओर ले जाती है। इसका कारण कर्म नहीं, आत्मा है। आत्मा में स्वबोध की सहज स्वरूपचेतना की, स्वकीय आनन्द और आत्मशक्ति की सहज प्रेरणा होती है; वही उसे तप, त्याग, परमार्थ एवं संयम की ओर ले जाती है। यदि जीव में यह सहज प्रेरणा न होती तो वह त्याग, संयम एवं परमार्थ की बात कभी नहीं सोच पाता, न ही उस मार्ग की ओर कदम रखता । अनादिकालीन संस्कारों के कारण जीव को इन्द्रियविषयभोग, असंयम, स्वार्थ एवं सुखशीलता प्रिय होती है, फिर भी इन्हें त्यागने, संयम एवं संवर करने की भावना जागती है, इसका कारण आत्मा का वह सहज ज्ञानादि, स्वभाव है। तप, त्याग आदि की प्रेरणाओं के साथ कर्म का कोई वास्ता नहीं है। इस प्रेरणा का मूल स्रोत आत्मा है । उसमें चैतन्य की एक शुद्ध धारा सतत बहती रहती है, वह एक क्षण भी रुकती नहीं, सर्वथा लुप्त भी नहीं होती । चैतन्य धारा सर्वथा लुप्त या अवरुद्ध हो जाए तो आत्मा चेतन से अचेतन बन जाएगी। परन्तु ऐसा होना असम्भव है । ' जीव चेतना के साथ स्वतंत्र, कर्म के साथ परतंत्र इस दृष्टि से जीव स्वतंत्र भी है, और परतंत्र भी । जहाँ चेतना क प्रश्न है, वहाँ वह स्वतंत्र है और जहाँ कर्म का प्रश्न है, वहाँ परतंत्र है जहाँ जीव चेतना के साथ - यानी आत्मा के चैतन्य ज्ञानादि स्वभाव के साध होता है, वहाँ पूर्ण स्वतंत्र होता है, किन्तु जहाँ परभाव - कर्म विभावकषायादि के साथ होता है, वहाँ परतंत्र होता है । वहाँ उसकी स्वतंत्रत छिन जाती है, आवृत हो जाती है। प्रत्येक आत्मा प्रभु (स्वयम्भू) है, प्रभुत्व शक्तिसम्पन्न है पंचास्तिकाय में आत्मा की स्वतंत्रता और परतंत्रता पर प्रकाश डाल हुए कहा गया है कि समस्त आत्माएँ प्रभु और स्वयम्भू हैं। वे किसी वशीभूत (परतंत्र) नहीं हैं। प्रत्येक आत्मा अपने शरीर का स्वयं स्वामी है प्रस्तुत ग्रन्थ में इसकी (आत्मा के प्रभुत्व गुण की) व्याख्या कर्मवियुक्त हो की अपेक्षा से इस प्रकार की गई है - " वीतरागदेव द्वारा बतलाये गए मा पर चलकर जीव समस्त कर्मों को उपशान्त तथा क्षीण करके विपरी अभिप्राय को नष्ट करके प्रभुत्व- शक्ति - सम्पन्न होकर ज्ञानमार्ग में विचर करता हुआ आत्मा के परम- विशुद्ध स्वरूप- मोक्षमार्ग को प्राप्त कर ले है।”३ १. देखें - कर्मवाद में इसका निरूपण पृ. १३८ - १३९ २. देखें - कर्मवाद में इसका निरूपण, पृ. १३९ ३. (क) पंचास्तिकाय गा. २७ (ख) पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति टीका गा. ७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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