________________
आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक
२१
३०. अजीव के प्रतिपक्षी के रूप में जीव की सिद्धि-संसार में देखा जाता है कि सभी पदार्थों का कोई न कोई प्रतिपक्षी होता है। जैसे-अघट का प्रतिपक्षी घट। इसी तरह अजीव का प्रतिपक्षी कोई न कोई होना चाहिए। जहाँ-जहाँ व्युत्पत्ति वाले शुद्ध पदों का निषेध होता है, वहाँ-वहाँ उनके प्रतिपक्षी अवश्य होते हैं। जैसे-अघट कहते ही 'घट' रूप व्युत्पत्ति वाले पद का निषेध होता है, तब समझना चाहिए कि 'अघट' का प्रतिपक्षी 'घट' अवश्य विद्यमान है। इसी प्रकार 'अजीव' कहने से उसके प्रतिपक्षी व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध जीव पद का निषेध हुआ है। अतः निश्चित है कि अजीव का प्रतिपक्षी जीव अवश्य विद्यमान है।
इसी प्रकार जगत् में सब पदार्थों का कोई न कोई विरोधी भी अवश्य रहता है। जैसे-अन्धकार का विरोधी प्रकाश, शीतलता की विरोधी उष्णता। इसी प्रकार जड़ पदार्थ का विरोधी भी कोई न कोई पदार्थ होना चाहिए। यह तर्क- शुद्ध और प्रमाणित है। अतः जो पदार्थ जड़ का विरोधी है, वह है-चेतन या आत्मा। इस प्रकार अजीव अनात्मा (जड़) के विरोधी तत्व-जीव या आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है।'
३१. लोकव्यवहार द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि-शरीर में जब तक जीव (आत्मा) होता है, तब तक यह व्यवहार होता है कि 'यह जीवित है, शरीर से जीव का सम्बन्ध टूट जाने पर कहा जाता है-'जीव चला गया, यह मर गया।' इस प्रकार लोक व्यवहार में बोले जाने वाले वाक्यों में 'जीव' पद के द्वारा शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। :: ३२. शरीर जीव का आश्रय है, स्वयं जीव नहीं-जीव (आत्मा) निराश्रय नहीं है, वह किसी न किसी आश्रय में रहता है। उसका वह आश्रय शरीर है, क्योंकि शरीर में ही जीव की उपस्थिति के चिह्न (ज्ञानादि) दिखाई देते हैं। शरीर स्वयं जीव नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर अचेतन होने से उसमें ज्ञानादि गुण नहीं होते। शरीर को ही जीव माना जाएगा तो उपर्युक्त लोकव्यवहार नहीं हो सकेगा।
१ (क) विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५७३ (अनुवाद) पृ. १६
(ख) कर्मग्रन्थ भा. १ (म. मि.) प्रस्तावना पृ. ३० (ग) स्याद्वाद मंजरी का. १७
(घ) षड्दर्शन समुच्चय टीका(गुणरत्न सूरि) का. ४० २ (क) विशेषावश्यकभाष्य (गणधरवाद) गा. १५७४ (अनुवाद) पृ. १८
. (ख) अष्टसहस्री पृ. २४८ ३ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५७४ (अनुवाद) पृ. १८ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org