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२० . कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
अधिष्ठाता कुम्भकार होता है। जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं होता, वह करण नहीं होता, जैसे आकाश। अतः करणरूप इन्द्रियों का जो अधिष्ठाता है वही आत्मा है। इसी प्रकार श्रोत्रादि इन्द्रियाँ करण हैं, उनका प्रेरक, जिनसे प्रेरित होकर इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, भी आत्मा ही है।
२८. आदाता के रूप में आत्मा की सिद्धि-विशेषावश्यक भाष्य में आत्मा की सिद्धि आदाता के रूप में भी की गई है। जैसे-संडासी और लोहे में आदान-आदेय (ग्रहण-ग्राह्य) सम्बन्ध होता है, तो उसे ग्रहण करने वाला (आदाता) लुहार होता है, इसी प्रकार इन्द्रियों और विषयों में आदान-आदेव (ग्रहण-ग्राह्य) सम्बन्ध है, अतः इनको ग्रहण करने वाला (आदाता) भी कोई न कोई होना चाहिए। क्योंकि जहाँ आदान-आदेय सम्बन्ध होता है, वहाँ आदाता भी अवश्य होता है। अतः इन्द्रियों और विषयों में आदान-आदेय सम्बन्ध होने से उनके आदाता आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है।
२९. निषेध से आत्मा की सिद्धि-'आत्मा (जीव) नहीं है', इस कथन से भी आत्मा (जीव) का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। यदि आत्मा का सर्वथा अभाव हो तो 'आत्मा नहीं है', ऐसा प्रयोग सम्भव नहीं है। जैसे-जगत् में यदि कहीं भी घड़ा न तो तो 'घड़ा नहीं है', ऐसा प्रयोग ही न होता। इसी प्रकार जीव (आत्मा) का सर्वथा अभाव होता तो 'जीव नहीं है', ऐसा प्रयोग नहीं होता। वास्तव में, जब हम यह कहते हैं कि 'घट नहीं हैं", तब घट हमारे सामने न होकर भी अन्यत्र कहीं अवश्य विद्यमान होता है। इसी प्रकार 'आत्मा नहीं है' ऐसा कथन करने पर यदि आत्मा यहाँ नहीं तो, अन्यत्र कहीं उसका अस्तित्व मानना ही पड़ेगा। जो वस्तु सर्वथा अभावस्वरूप हो, उसके विषय में निषेध भी नहीं किया जाता। अतः आत्मा के निषेध से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है।
इसी प्रकार "मैं नहीं हूँ" ऐसी मानसिक कल्पना ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है, क्योंकि आत्मा न हो तो ऐसी कल्पना ही प्रादुर्भूत न होती। अतः जो निषेध कर रहा है, वह स्वयं ही आत्मा है। ब्रह्म-सूत्र शांकरभाष्य में इसी तथ्य का समर्थन किया है कि जो जिसका निराकर्ता (निषेध-कता) है, वही उसका स्वरूप है।' १ (क) विशेषावश्यक भाष्य गा. १५६७
(ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. ११३ २ विशेषावश्यक भाष्य गा. १५६८ ३. (क) विशेषावश्यक भाष्य गा. १५७३ (अनुवाद) पृ. १६
(ख) कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) पृ. ३० (ग) 'य एव हि निराकर्ता तदेव हि तस्य स्वरूपम्'
-ब्रह्मसूत्र शा. भाष्य २/३/१/७
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