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________________ कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा नियमबद्धरूप से या क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में, अनादि काल से चली आ रही है। यही जन्म- जरा मृत्यु - व्याधिरूप संसार है। इस दृष्टि से कर्म संस्काररूप सिद्ध होता है। किन्तु जैनदर्शन में कर्म का स्वरूप संस्काररूप से अतिरिक्त भी है।" जैनदर्शन के अनुसार कर्म : संस्काररूप भी और पुद्गलरूप भी जैनदर्शन 'कर्म' को संस्काररूप भी मानता है। इसका विवेचन हम 'कर्मशब्द के विभिन्न अर्थ और रूप' नामक प्रकरण में भी कर आए हैं। उसका निष्कर्ष यही है कि जैनदर्शन में कर्म केवल संस्कार मात्र ही नहीं है, अपितु पुद्गलरूप भी है। यहाँ कर्म को एक वस्तुभूत पदार्थ भी माना है। वैशेषिक आदि दर्शनों और जैनदर्शन में कर्म के लक्षण में अन्तर वैशेषिक आदि दर्शनों और जैनदर्शन में कर्म- सामान्य के लक्षण में अन्तर इतना ही है कि वे परिणमनरूप भावात्मक पर्याय को कर्म न कहकर केवल परिस्पन्दनरूप क्रियात्मक पर्याय को ही कर्म कहते हैं, जबकि जैनदर्शन दोनों प्रकार की पर्यायों को 'कर्म' कहता है। उभयविध कर्म की व्याख्या ४०१ जैनदर्शन का मन्तव्य यह है कि जैसे - कर्मकारक या उत्क्षेपण, अवक्षेपण आदि में कर्मशब्द रागादि परिणामयुक्त परिस्पन्दनरूप क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त होता है, वैसे ही जीव के रागादि परिणामों के कारण कार्मणमुद्गल कर्मत्व को प्राप्त होते हैं। इसलिए परिणमनरूप भावात्मक क्रिया को भी कर्म कहना चाहिए। इसका कुछ स्पष्टीकरण हम 'कर्मशब्द के . विभिन्न अर्थ और रूप' नामक प्रकरण में कर आए हैं। प्रवचनसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि भी इसी तथ्य का समर्थन करते हैं- “आत्मा के द्वारा प्राप्य होने के क्रिया को कर्म कहते हैं और उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त 'पुद्गल' (कार्मण-पुद्गल) भी 'कर्म' कहलाता है"।' इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा में कम्पनरूप क्रिया होती है, इस क्रिया के निमित्त से पुद्गल के विशष्ट परमाणुओं में जो परिणमन होता है उसे भी कर्म कहते हैं। १. देखें, जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का 'कर्म का स्वरूप' लेख पृ. ६१ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भा. २, पृ. २६ ३. "क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात् कर्म, तन्निमित्त प्राप्त परिणामः पुद्गलोऽपि कर्म । " - प्रवचनसार टीका (अमृतचन्द्र सूरि) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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