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________________ ४०० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) वैशेषिक उसका उल्लेख अदृष्ट शब्द से करते हैं। यह केवल नाम भेद समझना चाहिए। वैसे दोनों ही दर्शन दोष से संस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से दोष और फिर दोष से संस्कार एवं जन्म; यह परम्परा बीज और अंकुर के समान अनादि मानते हैं।२ । न्यायदर्शन द्वारा मान्य धर्माधर्मरूप संस्कार का स्वरूप न्यायसूत्र एवं उसके वात्स्यायनभाष्य में नैयायिकों ने राग, द्वेष और मोह इन तीनों को 'दोष' माना है। इन तीन दोषों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवों की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति होती है। इन प्रवृत्तियों से धर्म-अधर्म की उत्पत्ति होती है। धर्माधर्म का ही दूसरा नाम संस्कार है। न्यायमंजरी में स्पष्ट कहा है कि उस कर्मजन्य संस्कार को ही नैयायिक धर्माधर्म शब्दों से पुकारते हैं। धर्माधर्मरूप आत्म-संस्कारः कर्मफलभोग-पर्यन्त स्थायी इसके अतिरिक्त न्यायमंजरीकार ने यह भी स्वीकार किया है कि "देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्चों में जो शरीरोत्पत्ति देखी जाती है, प्रत्येक पदार्थ को जानने के लिए जो बुद्धि उत्पन्न होती है और आत्मा के साथ मन का जो संसर्ग होता है, वह सब प्रवृत्ति के परिणाम का वैभव है। सभी प्रवृत्तियाँ क्रियात्मक हैं, अतः क्षणिक हैं, फिर भी उनसे उत्पन्न होने वाला धर्माधर्मपदवाच्य आत्म-संस्कार कर्मफल के भोगने तक स्थिर रहता है। विभिन्न दर्शनों में कर्म संस्काररूप सिद्ध होता है ___ इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्यों से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि 'कम' नाम क्रिया या प्रवृत्ति का है तथा उस प्रवृत्ति के मूल में राग-द्वेष रहते हैं। यद्यपि वह क्रिया, कर्म या प्रवृत्ति क्षणिक एवं नाशवान होती है, फिर भी उसका संस्कार फल भोग-पर्यन्त स्थायी रहता है। संस्कार से प्रवृत्ति १. आत्ममीमांसा पृ. १०१ २. प्रशस्तपादभाष्य पृ. ४७, ६३७, ६४३ ३. (क) न्यायभाष्य १/१/२ (ख) न्यायसूत्र १/१/१७, ४/१/३-९ (ग) एवं च क्षणभंगित्वात् संस्कारद्वारिकः स्थितः। ___स कर्मजन्य संस्कारो धर्माधर्मगिरोच्यते॥" -न्यायमंजरी पृ. ४७२ ४. “यो ह्ययं देव-मनुष्य-तिर्यग्भूमिषु शरीरसर्गः, यश्च प्रतिविषयं बुद्धि सर्गः, यश्चात्मना सह मनसा संसर्गः; स सर्वः प्रवृत्तेरेव परिणाम-विभवः। प्रवृत्तेश्च सर्वस्याः क्रियात्वात् क्षणिकत्वेऽपि तदुपहितो धर्माधर्म-शब्द-वाच्य आत्म-संस्कारः कर्म-फलोपभोग-पर्यन्तस्थितिरस्त्येव। - न्यायमंजरी पृ. ७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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