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________________ कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी ३९७ यज्ञादि कर्म (अनुष्ठान) करते ही तुरंत फल की निष्पत्ति नहीं होती, कालान्तर में होती में है; क्योंकि वह अनुष्ठान (कम) क्रियारूप होने से क्षणिक होता है। ऐसी स्थिति में कर्म के अभाव में वह (कम) फलोत्पादक कैसे हो सकता है ? इसके उत्तर में मीमांसकों ने कहा- “अपूर्व द्वारा कर्मफल निष्पन्न होता है। प्रत्येक कर्म में अपूर्व (पुण्यापुण्य) को उत्पन्न करने की शक्ति या योग्यता होती है। कर्म से अपूर्व और अपूर्व से फल उत्पन्न होता है। अपूर्व ही एक प्रकार से कर्म-संस्कार है; जो कर्म और कर्मफल को जोड़ने वाला है। अपूर्व वेद द्वारा विहित कर्म से उत्पन्न होने वाली योग्यता या शक्ति है। अन्य दार्शनिक जिसे संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य या शक्ति कहते हैं, उसी को मीमांसक 'अपूर्व' कहते हैं। परन्तु वे यह अवश्य मानते हैं कि वेद-विहित कर्म से जिस शक्ति या संस्कार का प्रादुर्भाव होता है, उसी को अपूर्व कहना चाहिए, अन्य कर्मजन्य संस्कार को नहीं। ___ मीमांसकों का मन्तव्य है कि यज्ञादि कर्म और पुरुष, दोनों अपने आप में स्वर्गरूप फल देने में असमर्थ या अयोग्य होते हैं, किन्तु यज्ञादि कर्म के अनुष्ठान के पश्चात् एक ऐसी योग्यता पैदा हो जाती है, जिससे कर्ता को स्वर्गरूप फल मिलता है।' सांख्यदर्शन में संस्कार के अर्थ में कर्म का ग्रहण . सांख्यदर्शन में कर्म के रूप में संस्कार चक्र का सातत्य बताते हुए कहा गया है-धर्माधर्म संस्कार हैं। उसी संस्कारवश, अर्थात्-कर्मवश शरीरोत्पत्ति होती है। सांख्यकारिका में कहा है-सम्यग्ज्ञान (तत्त्वज्ञान विवेकख्याति) की प्राप्ति हो जाने पर संचित धर्म-अधर्म इत्यादि कर्मों का बीज भाव तो नष्ट हो जाता है, किन्तु प्रारब्ध कर्मों के अवशिष्ट संस्कारों (कर्मों) के सामर्थ्य से साधक वैसे ही शरीर धारण किये रहता है, जैसे दण्ड से चलाए गये चाक (चक्र) का सम्बन्ध कुम्हार से हट जाने पर (दण्डचालन बंद हो जाने पर) भी पूर्व-उत्पन्न वेग नामक संस्कारवश घूमता रहता है। अर्थात्-पुरुष १. (क) कर्मभ्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्य वा। योग्यता शास्त्रगम्या या परा साऽपूर्वमिष्यते। -तंत्रवार्तिक २/१/१५ (कुमारिल भट्ट) (ख) वही, पृ. ३९५, ३९६, ३९९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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