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३९६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
होने से उपादान, उपादान के होने से भव, भव के होने से जन्म और जन्म के होने से जरा, मरण, रोग, शोक, रोना-पीटना, दुःख और बेचैनी-परेशानी होती है। इस प्रकार इन दुःखों के सिलसिले का प्रारम्भ कहाँ से हुआ? इसका कुछ पता नहीं।'
इस प्रकार वासनावश प्रवृत्ति-प्रतिप्रवृत्ति या क्रिया-प्रतिक्रिया के नियमानुसार कर्म संस्कारचक्र के रूप में उत्तरोत्तर अनवरत चलते रहते हैं। क्लेशरूप कर्मसंस्कार संसार में पुर्नजन्म का कारण
इसी ग्रन्थ में जन्म-मरणादिरूप संसार परिभ्रमण का कारण क्लेश को बताते हुए एक स्थान पर संवाद है
मिलिन्दनृप-"(मरने के बाद) कौन जन्म ग्रहण करते हैं, कौन नहीं ?" स्थविर- "जिनमें क्लेश (चित्त का मैल) लगा है, वे जन्म ग्रहण करते हैं और जो क्लेशरहित हो गए हैं, वे जन्म ग्रहण नहीं करते।" ।
नृप- “भंते । आप जन्म ग्रहण करेंगे या नहीं?"
स्थविर-"महाराज ! यदि संसार के प्रति आसक्ति लगी रहेगी तो जन्म ग्रहण करूंगा और यदि आसक्ति छूट जाएगी तो नहीं करूंगा।" __इस संवाद से स्पष्ट प्रतीत होता है, क्लेश शब्द ही यहाँ संस्काररूप 'कम' का स्थानापन्न है। मीमांसादर्शन में अपूर्व नामक वेदविहित कर्मजन्य संस्कार
मीमांसक चार प्रकार के कर्म मानते हैं- (१) काम्य (२) प्रतिषिद्ध, (३) नित्य और (४) नैमित्तिक। काम्य कर्म-कामना विशेष की सिद्धि के लिए है। प्रतिषिद्धि कर्म-अनर्थोत्पादक होने से निषिद्ध है। नित्यकर्म-फलाकांक्षा के बिना करणीय कर्म है, जैसे-संध्यावन्दनादि। और अवसर विशेष पर किया जाने वाला श्राद्ध आदि नैमित्तिक कर्म है।
मीमांसादर्शन में निष्काम भाव से किये जाने वाले वेद-विहित नित्य और नैमित्तिक कर्म दुःख और कर्मबन्ध के कारण नहीं माने जाते, दुःख और बन्धन से मुक्त होने के लिए काम्यकर्म और निषिद्धकर्म त्याज्य माने जाते
है।
१. मिलिन्दप्रश्न पृ. ६२ २. मिलिन्दप्रश्न, पृ. ३९ ३. (क) जैनदृष्टिए कर्म की प्रस्तावना (नगीनदास जीवणलाल शाह) से पृ. २८
(ख) आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. १०८ (ग) शाबरभाष्य २/१/५ (घ) तंत्रवार्तिक २/१/५, पृष्ठ ३९५ (ङ) शास्त्रदीपिका पृ. ८०
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