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३९४ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
द्वारा ही होते और वृत्तियाँ संस्कार से प्रादुर्भूत होती हैं। इस प्रकार वृत्ति और संस्कार का चक्र सर्वदा चलता रहता है। '
प्रवृत्ति के साथ ही कर्म - संस्कार और अनुभव - संस्कार
योगसूत्र की टीका में बताया गया है कि अनुभवजन्य संस्कार वासना है और प्रवृत्तिजन्य संस्कार कर्म है। वासना स्मृति को उत्पन्न करती है और कर्म (क्लेशयुक्त हो तो) जाति, आयु और भोगरूप विपाक को उत्पन्न करता है। आशय यह है कि जब-जब प्राणी प्रवृत्ति करता है, तब-तब कर्म-संस्कार चित्त में पड़ते हैं और प्रवृत्ति काल में हुए अनुभव के संस्कारभी उसी समय चित्त में पड़ते हैं। इस प्रकार प्रवृत्ति कर्म संस्कार और अनुभव-संस्कारों को एक साथ ही चित्त में डालती है। क्लेशपूर्वक प्रवृत्ति ही चित्त में कर्मसंस्कार की कारण
योगदर्शन व्यासभाष्य में कहा गया है कि जीव जो प्रवृत्ति करता है, उसके संस्कार चित्त में पड़ते हैं। इसे ही कर्मसंस्कार, कर्माशय या केवल कर्म कहा जाता है।.... क्लेशपूर्वक प्रवृत्ति की जाती है। तभी कर्म-संस्कार चित्त
पड़ते हैं । यदि प्रवृत्ति क्लेशरहित हो तो कर्मसंस्कार चित्त में नहीं पड़ते। इस दृष्टि से 'क्लेश' ही कर्मबन्ध का कारण होता है। कर्म संस्कार क्लेशमूलक ही होते हैं। पुण्यरूप और पापरूप, दोनों ही प्रकार के कर्म क्लेशमूलक होते हैं, इसलिए कर्म संस्कार अर्थात् कर्म भी पुण्यरूप और पापरूप, यों दो प्रकार के होते हैं। उदाहरणार्थ - एक व्यक्ति स्वर्गादि के प्रति राग से प्रेरित होकर धर्मरूप प्रवृत्ति करता है, वह परिणामस्वरूप पुण्यरूप कर्म बांधता है तथा धनादि के प्रति राग से प्रेरित होकर कोई चोरी आदि दुष्कृत्य करता है, वह परिणामस्वरूप पापरूप कर्म बांधता है।
-योगदर्शन १/५
१. (क) 'वृत्तयः पंचतय्यः क्लिष्टा अक्लिष्टाश्च ।'
(ख) 'क्लेश हेतुकाः कर्माशय-प्रचय-क्षेत्रीभूताः क्लिष्टाः । '
-योगदर्शन व्यासभाष्य
(ग) “प्रतिपत्ता अर्थमवसाय तत्र सक्तो द्विष्टो वा कर्माशयमाचिनोतीति भवन्ति धर्माधर्मप्रसवभूमयो वृत्तयः क्लिष्टाः इति । " - तत्त्व वैशारदी (घ) “तथाजातीयका क्लिष्टजातीया अक्लिष्टजातीया वा संस्कारा वृत्तिभिरेव क्रियन्ते । वृत्तिभिः संस्काराः संस्कारेभ्यश्च वृत्तय इत्येवं वृत्ति-संस्कारचक्रे निरंतरमावर्तते।”
- भास्वती टीका
२. योगसूत्र ४ / ८ की व्याख्या
३. (क) योगदर्शन, व्यास भाष्य ४/७
(ख) वही, २ / १२
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