SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म : संस्कार रूप भी, पुद्गल रूप भी ३९३ पश्चात् वे चावल सर्वथा पक गये। इसी प्रकार किसी चेतना द्वारा किसी कार्य को प्रारम्भ करने पर प्रथम आदि क्षण में ही उसके संस्कार आदत के रूप में नहीं पड़े, किन्तु बार-बार करने पर वही आदत सुदृढ़ होकर संस्कार का रूप धारण कर लेती है। इस पर से यह सिद्धान्त निर्धारित हुआ कि चित्त पर पड़ा आद्य प्रभाव धीमा ही क्यों न हो, होता अवश्य है। कार्मण शरीर उसे कर्म-संस्कार के रूप में ग्रहण कर लेता है और दीर्घ काल के पश्चात् पृथंक-पृथक प्रभावों के समूह के रूप में वह संचित संस्कार या आदत घनीभूत हो जाती है। आशय यह है कि कर्मगत अत्यन्त क्षीण प्रभाव प्रत्येक बार में उत्तरोत्तर गहरा होकर दृढ़ संस्कार के रूप में रूपान्तरित हो जाता है। जैनशास्त्रीय भाषा में प्रत्येक समय में प्राप्त कर्म के सूक्ष्म प्रभाव को हम आस्रव तथा संस्कार या आदत के रूप में उन्हीं अनेक प्रभावों के घनीभूत हो जाने को बन्ध तत्त्व कह सकते हैं।' अविद्याग्रस्त जीवों की प्रत्येक प्रवृत्ति बन्धकारक इस पर से यह स्पष्ट है कि जन्म-जरा-मरणरूप संसार-चक्र में परिभ्रमण करते हुए प्राणी अविद्या, अज्ञान या मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं। वे जो भी क्रिया या प्रवृत्ति करते हैं, वह अज्ञानमूलक होती है। रागद्वेषादिवश उनकी प्रवृत्ति होती है, जो अपने पीछे संस्कार को छोड़ देती है। इस कारण . उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति या क्रिया आत्मा के लिए बन्धनकारक हो जाती है। योगदर्शन में संस्काररूप में कर्म __योगदर्शन में वृत्ति-प्रवृत्ति और संस्कार के चक्र को समझाने के लिए कहा है- (प्रवृत्तियों की कारणभूत) वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैं, जो क्लिष्ट भी होती हैं, अक्लिष्ट भी। जिन वृत्तियों का कारण क्लेश होता है और जो कर्माशय के लिए आधारभूत होती हैं, वे क्लिष्ट वृत्तियाँ कहलाती हैं। आशय यह है कि ज्ञाता जब अर्थ (पदार्थ) को जान कर उसके प्रति राग या द्वेष करता है, तब ऐसा करके वह 'कर्माशय' को संचित करता है। इस प्रकार धर्म और अधर्म ( पुण्य-पाप) को उत्पन्न करने वाली वृत्तियाँ क्लिष्ट कहलाती हैं। तथा क्लिष्टजातीय या अक्लिष्टजातीय संस्कार वृत्तियों के १. कर्मरहस्य से सारांश रूप में उद्धृत पृ. १६१-१६२ २. कर्म का स्वरूप (पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में . प्रकाशित लेख) से पृ. ६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy