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________________ कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३६९ कर्म के दो रूप : अजीवकर्म और जीवकर्म इसी तथ्य का विश्लेषण करते हुए 'समयसार' में कहा गया है - जो मिथ्यात्व, योग, अविरति और अज्ञान अजीव है, वह तो पुद्गल कर्म है और जो मिथ्यात्व, अविरति और अज्ञान जीव ( सम्बद्ध) है, वह उपयोग रूप रागद्वेषादिक जीव कर्म है । ' इन्हीं दोनों को क्रमशः द्रव्यकर्म और भावकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्म द्रव्यरूप और भावकर्म भावरूप होते हैं। संसारी आत्मा और कर्म में अन्तर क्या ? प्रश्न होता है - संसारी आत्मा भी जड़ और चेतन का मिश्रण है और कर्म में भी वही बात है, तब दोनों में अन्तर क्या है? इसका समाधान यह है कि संसारी आत्मा का चेतन अंश जीव कहलाता है, और जड़ अंश कर्म। किन्तु वे चेतन और जड़ अंश इस प्रकार के नहीं हैं जिनका संसार - अवस्था में अलग-अलग रूप से अनुभव किया जा सके। इनका पृथक्करण मुक्तावस्था में ही होता है । संसारी आत्मा सदैव कर्म से युक्त होती है। जब वह कर्म से मुक्त हो जाती है, तब संसारी आत्मा नहीं, मुक्तात्मा कहलाती है। कर्म जब आत्मा से पृथक् हो जाता है, तब वह कर्म नहीं, शुद्ध पुद्गल कहलाता है।’ द्रव्यकर्म और भावकर्म : दोनों आत्मा से सम्बद्ध यही कारण है कि आत्मा से सम्बद्ध पुद्गल को द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से युक्त आत्मा की प्रवृत्ति को भावकर्म कहा जाता है। पं. सुखलालजी ने भी द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों को जीव से सम्बद्ध बताते हुए कहा है- भावकर्म आत्मा का वैभाविक परिणाम है, इससे उसका उपादानरूप कर्त्ता जीव ही है और द्रव्यकर्म, जो कि कार्मणजाति के पुद्गलों का विकार है; उसका भी कर्त्ता निमित्तरूप से जीव ही है । ' 'आप्तपरीक्षा' में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है - जीव के जो द्रव्यकर्म हैं, वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं तथा जो भावकर्म हैं, वे आत्मा के चैतन्य- परिणामात्मक हैं, क्योंकि वे आत्मा से कथंचित् अभिन्नरूप से स्व-वेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादिकषाय रूप हैं। १. "पुग्गल कम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अण्णाणमजीवं । उवओगो अण्णाणं अविरइ मिच्छं च जीवो दु || " २. कर्मग्रन्थ प्रथम भाग प्रस्तावना (पं. सुखलालजी) पृ. २१ ३. कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन ( जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित उपाचार्य देवेन्द्र मुनि के लेख) से, पृ. २६ ४. " द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा ॥" भावकर्माणि चैतन्य-विवर्त्तात्मनि भान्ति नु । क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिद भेदतः ॥ " Jain Education International - समयसार गा. ८८ - आप्तपरीक्षा श्लो. ११३, ११४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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