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________________ ३६८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) आत्मिक तत्त्व की मुख्यता और पौद्गलिक तत्त्व की गौणता होती है। यद्यपि भावकर्म और द्रव्यकर्म में आत्मा और पुद्गल की प्रधानताअप्रधानता होते हुए भी दोनों में एक-दूसरे का सद्भाव्-असद्भाव नहीं होता।' आशय यह है कि आत्मा, आत्मा रहती है और पुद्गल, पुद्गल । समयसार (तात्पर्य वृत्ति) में कहा गया है कि सुनार आदि शिल्पी आभूषण आदि के निर्माण का कार्य करता है, किन्तु वह आभूषण-स्वरूप नहीं होता। उसी प्रकार जीव (द्रव्य-भाव) कर्म (बन्ध) करता हुआ भी कर्मस्वरूप नहीं होता। इसी कारण भावकर्म को दो प्रकार का कहा गया है-जीवगत और पुद्गलगत । क्रोधादिभाव की व्यक्तिरूप भावकर्म जीवगत है और पुद्गलपिण्ड की शक्ति पुद्गलद्रव्यगत भावकर्म है। जैसे-मीठे-खट्टे द्रव्य को खाते समय मीठे-खट्टे स्वाद की व्यक्ति का विकल्प पैदा होता है, वह जीवगत भाव है, तथा उस व्यक्ति के कारणभूत मीठे-खट्टे द्रव्य की जो शक्ति है, वह पुद्गलद्रव्यगत भाव है। कर्मबद्ध संसारी जीव में ही जड़-चेतन-मिश्रण से कर्मद्वय रूप यदि भावकर्म को आत्मा का शुद्ध परिणाम (वत्ति) और द्रव्यकर्म को पुद्गल-परमाणुओं का शुद्धपिण्ड माना जाएगा तो फिर शुद्ध आत्मा और कर्म में तथा कर्म और पुद्गल में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय से कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का सम्बन्ध संसारी (कर्म-सम्बद्ध) आत्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं। मुक्त आत्मा तो कर्मों से सर्वथा रहित शुद्ध-बुद्ध-मुक्त विशुद्ध-चैतन्यरूप ही होता है। संसारी आत्मा कर्मो से बद्ध होता है। उसमें जड़ और चैतन्य का मिश्रण होता है। बद्ध आत्मा की कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के कारण जो पुद्गलपरमाणु आकृष्ट होकर परस्पर मिल जाते हैं, नीर-क्षीरवत् या अग्नि से तप्तलोहगोलकवत् एकमेक-से हो जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं। इस तरह कर्म में जड़ और चेतन का मिश्रण गौण-मुख्यरूप से रहने के कारण कर्म के मुख्यतः दो रूप बतलाए हैं। १. कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन (जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में उपा. देवेन्द्रमुनि) के लेख से पृ. २६ २. (क) जह सिप्पिओ उ कम्म कुव्वइ ण य सो उ तम्मओ होइ। तह जीवो वि य कम्म कुव्वदि ण तम्मओ होदि॥ -समयसार गा. ३४९ (ख) समयसार तात्पर्यवृत्ति गा. १९०-१९२ : भावकर्म द्विविध भवति-जीवगतं पुद्गलकर्म-गतं च। तथाहि-भावक्रोधादि-व्यक्तिरूप जीवभावगतं भण्यते। पुद्गलपिण्ड-शक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं। ३. उपाचार्य देवेन्द्र मुनि : कर्मवादः एक विश्लेषणात्मक अध्ययन पृ. २६ (जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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