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________________ ३६६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) में बताया गया है कि कर्मशब्द कर्ता, कर्म और भाव तीनों साधनों में विवक्षानुसार (कर्मास्रव के प्रकरण मे) परिगृहीत है। आशय यह है कि कारणभूत परिणामों की प्रशंसा की विवक्षा में कर्तृधर्म का आरोप करने पर वही परिणाम स्वयं द्रव्य-भावरूप कुशल-अकुशल कर्मों को करता है, अतः वही कर्म है। आत्मा की प्रधानता में वही कर्ता होता है, और परिणाम होता है-करण। तब यह व्युत्पत्ति (विग्रह) होती है-जिनके द्वारा किये जाएँ, वह कर्म है।' साध्य-साधन-भाव की विवक्षा न होने पर स्वरूप मात्र का कथन करने से कृति (क्रिया) को भी कर्म कहते हैं। इसी तरह अन्य : कारकों की भी उपपत्ति की जा सकती है। जैनदर्शन की दृष्टि से कर्मसामान्य के ये व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी हो सकते हैं।' १. "कर्मशब्दस्य कादिषु साधनेषु संभवत्सु इच्छातो विशेषोऽध्यवसेयः ।.... करणप्रशंसाविवक्षाया कर्तृधर्माध्यारोपे सति यः परिणामः कुशलमकुशल वा द्रव्यभावरूपं करोतीति कर्म। आत्मनः प्राधान्यविवक्षायां कर्तृत्वे सति परिणामस्य करणत्वोपपत्तेः, बहुलापेक्षया क्रियतेऽनेन कर्मे त्यपि भवति। साध्यसाधन- भावानभिधित्सायां स्वरूपावस्थित-तत्त्वकथनात् कृतिः कर्मेत्यपि भवति। एवं शेषकारकोपपत्तिश्च योज्या।" -तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६/१/७/५०४/२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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