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कर्म-शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप ३६५ ईसा, मोहम्मद और मूसा ने 'कर्म' शब्द के अर्थ के द्योतक 'शैतान' शब्द का प्रयोग किया है।
कर्मशब्द के ही ये पर्यायवाची शब्द हैं, जिन्हें विभिन्न दर्शनों और धर्मपरम्पराओं ने अपने-अपने ग्रन्थों में अंकित किया है। छह द्रव्यों में कथंचित् द्रव्यकर्मत्व
क्रिया शब्द कर्म का पर्यायवाचक है। इस अपेक्षा से 'धवला' में कहा गया है-"धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ये छहों द्रव्य स्वभाव से परिणमनशील हैं। अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप उनमें प्रति समय परिणमन क्रिया होती रहती है। इसी कारण छहों द्रव्यों का 'द्रव्यकर्म' से भी ग्रहण किया गया है। वहाँ कहा गया है-"जो द्रव्य सद्भावक्रियानिष्पन्न हैं, वे सब द्रव्यकर्म हैं। जीव द्रव्य का ज्ञान-दर्शनादिरूप से होने वाला परिणाम उसकी सद्भावक्रिया. है। पुद्गल द्रव्य का वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शविशेषरूप से होने वाला परिणाम उसकी सद्भाव क्रिया है। इसी प्रकार धर्म-अधर्म द्रव्य का जीव एवं पुद्गलों को गति-स्थिति में हेतुरूप होना, तथा काल और आकाश द्रव्य का सभी द्रव्यों के परिणमन एवं अवगाह में निमित्त रूप होने वाला परिणमन उन-उन द्रव्यों की सद्भावक्रिया है। इत्यादि क्रियाओं द्वारा वे द्रव्य सद्भाव से ही निष्पन्न हैं, इसलिए सब द्रव्यकर्म हैं। द्रव्यकर्म होने से ये कर्म भावकर्मता की कोटि में तब तक नहीं आते, जब तक वे जीव के रागद्वेषादि परिणामों से आकृष्ट होकर सम्बद्ध न हो जाएँ। वास्तव में वही क्रियाएँ बन्धककर्मरूप होती हैं, जो आत्मा के द्वारा प्राप्त हों, यानी जो रागद्वेषयुक्त चेतनकृत हों। फिर जीव के कषायादियुक्त परिणाम (भावकम) के निमित्त से परिणमन को प्राप्त हुआ पुद्गल भी कर्म (द्रव्यकर्म=बंधकारक कम) कहलाते हैं। जैनदृष्टि से कर्म सामान्य का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ
कर्म शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य, तीनों प्रकार के विग्रहों (व्युत्पत्तियों) से निष्पन्न होता है। राजवार्तिक
१. (क) बाइबिल
(ख) कुरानशरीफ २. "जीवदव्वस्स णाणदंसणेहि परिणामो सब्भाव-किरिया, पोग्गलदव्वस्स
वण्ण-गंध-रस-फास-विसेसेहिं परिणामो सब्भाव-किरिया।..... एवमादीहि किरिया हि जाणि (दव्वाणि सब्भाव किरिया) णिप्फणाणि सहावदो चेव दव्वाणि, तं सव्वं दव्वकम्मणाम।।"
-धवला खण्ड १३/५, ४ सूत्र १४/४३/७
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