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कर्म-शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप
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करने की इच्छा और उसके प्रभाव एवं फलविपाक तक के समस्त तथ्यों का समावेश हो जाता है।'
जैनदृष्टि से कर्म के अर्थ में क्रिया और उसके हेतुओं का समावेश
जैनदर्शन में सामान्यरूप से कर्म का अर्थ क्रियापरक ही किया गया है, किन्तु यह उसकी एक आंशिक व्याख्या है। कर्मग्रन्थ में कर्म की स्पष्ट परिभाषा इस प्रकार की गई है - "जीव (आत्मा) के द्वारा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग आदि हेतुओं (कारणों) से जो किया जाता है, वही 'कर्म' कहलाता है। " जैनदर्शन के अनुसार कर्म के अन्तर्गत कर्म के हेतु और तदनुरूप क्रिया, ये दोनों तत्त्व सन्निहित हैं। कर्मशब्द समग्र कार्य - अर्थ में व्यापक
यदि व्यापक दृष्टि (निश्चय और व्यवहार उभय दृष्टि) से देखा जाए तो कर्म-शब्द समग्र कार्यों के अर्थ में घटित हो जाता है। फिर वह कार्य द्रव्यात्मक़ हो या भावात्मक, परिस्पन्दनरूप हो या परिणमनरूप, क्रियारूप हो या पर्यायरूप। क्योंकि 'कार्य' उसे ही कहा जाता है - जो किसी एक समयविशेष में प्रारम्भ होकर किसी दूसरे समयविशेष में समाप्त हो जाए। इस दृष्टि से 'कर्म' या 'कार्य' नित्य न होकर उत्पन्न-ध्वंसी होते हैं। यही 'पर्याय' का लक्षण है।'
कर्मशब्द में क्रिया से लेकर फल तक के सारे अर्थ समाविष्ट
अतः जैनदर्शन के अनुसार कर्मशब्द केवल क्रिया, कार्य या संस्कार के अर्थ में ही परिसीमित नहीं है, अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आत्मा से सम्बद्ध ऐसा अर्थ लिया गया है, जिसमें जीव के द्वारा होने वाली प्रत्येक क्रिया से लेकर फल तक के सारे अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं। कर्म : स्पन्दनक्रियारूप त्रिविध योग
यह तो प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि जीव का स्पन्दन तीन प्रकार का होता है - कायिक, वाचिक और मानसिक । प्रत्येक जीव शरीर से कुछ न कुछ क्रिया करता है। जिन (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के) प्राणियों के रसनेन्द्रिय (जिह्वा) है, वे वचन से कुछ न कुछ बोलते हैं तथा जिन “ असंज्ञी जीवों के द्रव्यमन नहीं है, उनके सिवाय शेष समस्त संज्ञी (समनस्क) जीव मन से कुछ न कुछ सोचते - विचारते हैं। ये तीन क्रियाएँ हैं, जो प्रत्येक के अनुभवगोचर होती हैं। ये क्रियाएँ तो बाह्य हैं। इनके सिवाय तीन
१. बौद्ध धर्म दर्शन पृ. २५५ (आचार्य नरेन्द्रदेव)
२. "कीरइ जिएण हेउहिं जेणं तो भण्णएं कम्मं । " ३. कर्म सिद्धान्त ( जिनेन्द्र वर्णी) पृ. ४२
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- कर्मग्रन्थ प्रथम, गा. १
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