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________________ ३५८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . . कहते हुए तथागत बुद्ध ने कहा है-"भिक्षुओ। चेतना ही कर्म है, ऐसा मैं कहता हूँ। चेतना के द्वारा ही (जीव) कर्म को वाणी से, काया से या मन से करता है।" इसका आशय इतना ही है कि चेतना के होने पर ही ये सभी कर्म (क्रियाएँ) सम्भव हैं। आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से त्रिविध कर्म बौद्ध दृष्टि से इसका स्पष्टीकरण करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है-" उसमें सभी कर्मों का सापेक्ष महत्व स्वीकार किया गया है। आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से तीनों प्रकार के कर्मों को अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। आश्रय की दृष्टि के कायकर्म ही प्रधान है। क्योंकि मनःकर्म और वाचाकर्म भी काया पर ही आश्रित हैं। स्वभाव की दृष्टि से वाक्कर्म ही प्रधान हैं, क्योंकि काय और मन स्वभावतः कर्म नहीं हैं। कर्म उनका स्व-स्वभाव नहीं है। यदि समुत्थान (आरम्भ) की दृष्टि से विचार करें तो मनःकर्म ही प्रधान है; कयोंकि सभी कर्मों का आरम्भ मन से है।" समुत्थान के आधार पर कर्मों का द्विविध वर्गीकरण बौद्धदर्शन में समुत्थान कारण को प्रमुखता देकर ही यह कहा गया है कि चेतना ही कर्म है। साथ ही इसी आधार पर कर्मों का एक द्विविध वर्गीकरण भी किया गया है-"चेतना कर्म और चेतयित्वा कर्म। चेतना मानस कर्म है और चेतना से उत्पन्न होने के कारण शेष दोनों वाचिक और कायिक कर्म चेतयित्वा कर्म कहे गए हैं।"२ । कर्म के अर्थ में क्रिया से लेकर फलविपाक तक समाविष्ट आचार्य नरेन्द्रदेव के निम्नोक्त उद्गारों से यह स्पष्ट है कि केवल चेतना (आशय) और कर्म ही सकल कर्म नहीं हैं। (उनमें) कर्म के परिणाम का भी विचार करना होगा।' तात्पर्य यही है कि बौद्धदर्शन में 'कर्म' शब्द का अर्थ 'क्रिया' तक ही सीमित नहीं है, अपितु कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाएँ विशुद्ध चेतना द्वारा होने से, उस पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। तथा उसके फलस्वरूप भावी क्रियाओं का निश्चय और उन भावी क्रियाओं से समुत्पन्न अनुभव आदि भी क्रिया में परिगणित हो जाते हैं। इसलिए यहाँ भी 'कर्म' शब्द के अर्थ में क्रिया, क्रिया का उद्देश्य, उसके १. बौद्ध धर्मदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन में उद्धृत अंगुत्तरनिकाय के श्लोक से २. (क) जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) (ख) बौद्धधर्मदर्शन पृ. २४९ (आचार्य नरेन्द्रदेव) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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