SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंच - कारणवादों की समीक्षा और समन्वय ३५१ वस्तुतः गहराई में उतरकर बारीकी से देखने पर पांचों ही कारण दृष्टिगोचर होते हैं। जगत्वैचित्र्य का प्रधान कारण : कर्म वास्तव में जगत्-वैचित्र्य एवं वैविध्य का प्रधान कारण कर्म है। पुरुषार्थ उसका सहचर है। वह कर्म के अन्तर्गत ही आ जाता है। इसलिए कर्म पांचों कारणों में सबसे व्यापक है। बाकी के कालादि तीन कारण कर्म के सहकारी कारण हैं। कर्म को प्रधानता देने से पुरुषार्थ को पोषण और समर्थन मिलता है, जो कि प्रत्येक कार्य के बाह्य या अन्तरंगरूप में अनिवार्य है। पुरुषार्थ से प्राणियों में आत्मबल एवं आत्मविश्वास पैदा होता है। चैतन्य का स्वपुरुषार्थ ही उत्तरदायी इसके अतिरिक्त इन पांचों कारणों में उत्तरदायी भी आत्मा का अपना पुरुषार्थ है । व्यक्ति का अपना कर्तृत्व- पुरुषार्थ इसलिए उत्तरदायी है कि काल, स्वभाव, नियति और कर्म में चारों तो अचेतन (जड़) हैं, परिस्थिति और वातावरण, भवितव्यता और शरीर के अवयव आदि भी अचेतन हैं। अचेतन कदापि उत्तरदायित्व का वहन नहीं कर सकते। उत्तरदायित्व का वहन चेतन ही कर सकता है । पुरुषार्थ का सम्बन्ध चेतन से है। जिसमें चैतन्य, ज्ञान, विवेक या बोध हो, उसी में दायित्व निभाने की क्षमता होती है। व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ चेतना के साथ सम्बद्ध है। वह दायित्वबोध, उसका स्वीकार और निर्वाह करने से बच नहीं सकता। इसलिए कहना होगा कि काल, स्वभाव, नियति और कर्म, ये चारों उत्तरदायी नहीं हैं, उत्तरदायी है चैतन्यशील ज्ञानमय मानवात्मा का अपना पुरुषार्थ । वह अपने किसी भी आचरण, व्यवहार या कर्तृत्व की जिम्मेवारी से छूट नहीं सकता। वह इससे कथमपि टालमटूल नहीं कर सकता कि- "मैं क्या जानूं - कर्म ने मुझसे ऐसा कराया, या स्वभाव के कारण ऐसा हुआ अथवा होनहार ही ऐसा था, जमाना ही पंचमकाल या कलियुग का है, उसमें मैं क्या करता ?" काल आदि सब सहकारी कारण एवं दायित्वनिर्वाह में परोक्ष एवं तटस्थ निमित्त व सहायक हो सकते हैं, किन्तु व्यवहार, आचरण या कार्य के मोर्चे पर तो व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ को ही दायित्व की बागडोर संभालनी होगी। इस प्रकार कर्मवाद के ऐतिहासिक पर्यालोचन के सन्दर्भ में हमने कर्मवाद की जड़ों को सींचने एवं उखाड़ने में साधक-बाधक कारण वादों की समीक्षा की है। इन पर मनोयोगपूर्वक चिन्तन करने से कर्मविज्ञान का सारा रहस्य समझ में आ जाएगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy