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________________ ३३४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) कारण यह है कि उपनिषद्काल से पूर्व तक वैदिक परम्परा के मनीषी विश्व वैविध्य एवं वैचित्र्य का कारण अन्तरात्मा में ढूंढने की अपेक्षा बाह्य पदार्थों में ही मानकर सन्तुष्ट हो गए थे। यही कारण है कि उपनिषद्काल में सर्वप्रथम श्वेताश्वतर उपनिषद् में विश्ववैचित्र्य के छह निमित्त कारणों का उल्लेख मिलता है। संभव है, इसमें कर्मवाद एवं पुरुषार्थवाद का आत्मा से सीधा सम्बन्ध होने से उनकी दृष्टि में ये दोनों वाद न आए हों। इससे यह भी सूचित होता है कि तब तक औपनिषदिक मनीषी ऋषिगण कर्मवाद और पुरुषार्थवाद से भलीभांति परिचित नहीं हुए होंगे। जो भी हो, .. पश्चाद्वर्ती वैदिक मनीषियों एवं दार्शनिकों ने अवश्य ही इन दोनों को किसी न किसी रूप में अपनाया है। प्रत्येक कार्य में पाच कारणों का समवाय और समन्वय मानना उचित जिस प्रकार वैदिक मनीषियों ने वैदिक परम्परा-सम्मत यज्ञकर्म और देवाधिदेव (ब्रह्मा या प्रजापति) के साथ अपनी दृष्टि से 'कर्म' का समन्वय किया, उसी प्रकार जैन-मनीषियों ने दार्शनिक युग में कालादि कारणों की गहराई से समीक्षा करके पूर्वोक्त पांच कारणवादों को सृष्टि-वैचित्र्य के कारणों में उपयुक्त समझा और उनमें से यथोचित अंशों को अपनाकर कर्म के साथ उनका समन्वय किया। पश्चाद्वर्ती जैन दार्शनिक आचार्यों ने इस सिद्धान्त का निरूपण किया कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर निर्भर नहीं है, अपितु वह आश्रित है-पांचों कारणों के समवाय (कारण-साकल्य) पर। काल, स्वभाव, नियति, कर्म (स्वयं द्वारा पूर्वकृत कम) और पुरुषार्थ, ये पांच कारण हैं। इन्हीं पाँचों को जैन दार्शनिकों ने 'पंचकारण-समवाय' कहा है। ये पांचों सापेक्ष हैं। इनमें से किसी भी एक को कारण मान लेने से कार्य-निष्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है कि "काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ, इन पांच कारणों में से किसी एक को ही कारण माना जाए और शेष कारणों की उपेक्षा की जाए, यह मिथ्या धारणा है। सम्यक् धारणा यह है कि कार्य के निष्पन्न होने में काल आदि सभी कारणों का समन्वय किया जाए।"२ आचार्य हरिभद्र ने भी शास्त्रवार्तासमुच्चय' में इन एकान्तकारण-वादों की समीक्षा करते हुए कहा १. श्वेताश्वतर-उपनिषद् १/२ २. कालोसहावणियई पुवकम्म पुरिसकारणेगता। मिच्छत्तं तं चेव उ, समासओ हुंति सम्मत्तं ॥ -सन्मति तर्क प्रकरण ३/५३ ३. अतः कालादयः सर्वे समुदायेन कारणम्। गर्भादेः कार्यजातस्य विज्ञेया न्यायवादिभिः ॥ न चैकैकतः एवेह क्वचित् किञ्चिदपीक्ष्यते। तस्यात् सर्वस्य कार्यस्य सामग्री जनिका मता ॥ - शास्त्रवार्तासमुच्चय २/७९-८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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