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________________ पंच-कारणवादों की समीक्षा और समन्वय ३३३ कर्मवाद के सन्दर्भ में (पंच-कारणवादों की समीक्षा और समन्वय अनेकान्तवादी जैनदर्शन का मन्तव्य जैनधर्म और उसका दर्शन अनेकान्तवादी है। अनेकान्तवाद के छन्ने से पहले वह प्रत्येक तत्त्व को छानता है। अगर वह तत्त्व किसी अपेक्षा से आत्मा के लिये हितकर है, आत्मा की स्वतंत्रता को छीनता नहीं है, आत्मा से परमात्मा बनने के चरम लक्ष्य को प्राप्त कराने में उपयोगी है; तो वह उस तत्त्व को उस अपेक्षा से अपनाने और कर्मवाद के साथ सामंजस्य बिठाने में जरा भी नहीं हिचकिचाता। जैनदर्शन एक ऐसा वफादार माली है, जो आत्मारूपी उद्यान में उगे हुए निरर्थक कटीले झाड़-झंखाड़ों और निरुपयोगी पेड़-पौधों की कांटछांट करता है, अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद की बड़ी कैंची लेकर चलाता है और जो आत्मा के लिए जितने अंश में अहितकर, अकिंचित्कर एवं आत्मस्वातंत्र्य या आत्मा के सम्यक् पुरुषार्थ में बाधक हो, उस दर्शन, वाद या मत या मान्यता का उतने अंशों में निराकरण करके शेष सत्यांश को अपना लेता है। जो दर्शन, वाद या मत सर्वथा अहितकर, आत्मविकास के लिए घातक एवं आत्म-स्वातंत्र्य में सर्वथा बाधक हो, उसे हेय समझता है। विश्व-वैचित्र्य के पांच कारण इस दृष्टि से जैनदर्शन जब सृष्टि की विविधता, विसदृशता एवं . विचित्रता के कारणों की मीमांसा करता है, तब उसके गहन सुदृष्टिपथ में विश्ववैचित्र्य के पांच महत्त्वपूर्ण कारण आते हैं। उनके नाम से पांच वाद प्रचलित थे-(१) कालवाद, (२) स्वभाववाद, (३) नियतिवाद (४) कर्मवाद और (५) पुरुषार्थवाद। छह कारणवादों में कर्म और पुरुषार्थ का उल्लेख क्यों नहीं ? ... श्वेताश्वतर उपनिषद् में जिन ६ कारणवादों का उल्लेख हैं, उनमें कर्मवाद तथा पुरुषार्थवाद को बिलकुल स्थान नहीं दिया गया है, उसका १. सन्मतितर्क प्रकरण ३/५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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