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कर्मवाद पर प्रहार और परिहार ३०१
हैं। यह सिद्धान्त संसार के समस्त जीवों (आत्माओं) को अपने में सुषुप्त एवं प्रच्छन्न-आवृत ईश्वरत्व - परमात्मत्व प्रगट करने का पूर्ण उत्साह एवं बल प्रदान करता है। और तदनुरूप सम्यक् पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। अतीत में भी कर्मवाद के इस सिद्धान्त के अनुसार अनन्त - अनन्त मानवात्मा स्वकीय सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा (ईश्वर) हुए हैं, भविष्य में भी होंगे, और वर्तमान में भी महाविदेहक्षेत्र में हो रहे हैं। सृष्टिकर्तृत्व एवं एकेश्वरत्व का समन्वयात्मक समाधान
जैनदर्शन के प्रखर पुरस्कर्त्ता आचार्य हरिभद्रसूरि ने ईश्वर (परमात्मा) के विषय में जैन, वैदिक दोनों धर्मधाराओं का समन्वयात्मक श्लोक दिया है। उसका भावार्थ यह है कि ' आत्मा ही (निश्चयदृष्टि से ) अनन्त ज्ञान-दर्शन-आनन्द- शक्तिरूप परम आत्मिक ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण ईश्वर माना गया है। वह निश्चयदृष्टि से तो अपने ज्ञानादिचतुष्टय रूप स्वभाव का कर्त्ता- भोक्ता है, और व्यवहारदृष्टि से जो जीवन्मुक्त (अघातिकर्मयुक्त) ईश्वर अथवा अष्टकर्मयुक्त बद्ध ईश्वर है, वह अपने शुभ-अशुभ कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है। इसे ही दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं, – सिद्ध, मुक्त एवं बद्ध तीनों प्रकार के ईश्वर अपनी-अपनी सृष्टि के कर्त्ता - भोक्ता हैं। और ये तीनों प्रकार के ईश्वर अकेले-अकेले (एकाकी) ही अपनी सृष्टि के कर्त्ता-भोक्ता तथा कर्मक्षयकर्त्ता हैं। इस अपेक्षा से ईश्वर-कर्तृत्ववाद एवं ऐकेश्वरवाद, दोनों ही सिद्धान्तों का समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित हो
गया।
इस प्रकार 'कर्मवाद' पर जो जो आक्षेप थे, उन सबका यथायोग्य समाधान एवं समन्वय जैनदर्शन ने किया है।
१. पारमैश्वर्य - युक्तत्वात् आत्मैव मत ईश्वरः । स च कर्तेति निर्दोषं, कर्तृवादोव्यवस्थितः ॥
- शास्त्रवार्तासमुच्चय स्तवक ३, श्लो. १४
-उत्तराध्ययन २०/३७
२. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ।
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