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३०० कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) जैसे स्वतंत्र है, वैसे ही कर्मफल भोगने में भी स्वतंत्र ही रहता है, ईश्वर का वहाँ कोई हस्तक्षेप नहीं होता। मुक्त ईश्वर को कर्मफल भुगवाने के प्रपंच में डालना उचित नहीं।
तीसरे प्रहार का परिहार-ईश्वर भी चेतन है और जीव भी चेतन है। फिर उनमें अन्तर ही क्या है ? अन्तर केवल इतना ही हो सकता है कि ईश्वर की सभी शक्तियाँ पूर्णरूप से विकसित हैं जबकि जीव की सर्वशक्तियाँ कर्म के आवरणों से आच्छादित हैं। जब जीव अपने ज्ञानादि रत्नत्रय में सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्मावरणों को दूर कर देता है, तब उसकी समग्र आत्मिक शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित-अभिव्यक्त हो जाती हैं। फिर जीव और ईश्वर में विषमता और तरतमता किस बात की रह . गई ? विषमता और तरतमता का कारण तो औपाधिक कर्म हैं। जैसेपूर्णरूप से प्रकाशित मध्याह्न के सूर्य के प्रकाश और आतप को बादल चाहे जितना आच्छादित और मन्द कर दें, फिर भी बादलों के हटते ही सूर्य पुनः पूर्णरूप से प्रकाशित हो उठता है, वैसे ही समग्र शक्तियों से परिपूर्ण सांसारिक आत्मा भी कर्मों के बादलों से कितना ही आवृत हो जाए, किन्तु सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय एवं तप, संयम के कारण कर्ममेघों का आवरण हटते ही वह अपनी शुद्ध और पूर्ण प्रकाशयुक्त अवस्था में आ जाती है।
सोने में से मैल निकाल दिया जाए तो फिर मलिन सोने को शुद्ध सोना होने में कोई संदेह नहीं रह जाता। इसी तरह आत्मा में से कर्ममल को दूर करने पर शुद्ध आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।
औपाधिक कर्मों के हटने पर भी यदि विषमता बनी रही तो फिर कर्म-मुक्ति की साधना किस काम की ? वह मुक्ति ही क्या, जो कर्ममुक्त हो जाने पर भी आत्मा को पुनः विषमतामय संसार में डाल दे। इसलिए यह मानने में किसी प्रकार की सैद्धान्तिक बाधा या आपत्ति नहीं है, कि कर्मों से मुक्त हो जाने पर सभी जीव मुक्त परमात्मा (ईश्वर) हो जाते हैं।
युक्ति-प्रमाण-विरुद्ध कोरी कल्पना या गतानुगतिकता अथवा अन्धपरम्परा के आधार पर यह प्रतिपादन करना कि ईश्वर एक ही होना चाहिए, कथमपि उचित नहीं है। आत्माएँ अनन्त हैं, और वे सभी स्वरूप एवं तत्त्व की दृष्टि से ईश्वर ही हैं। इसीलिए 'बृहदालोयणा' में कहा गया है
सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोही सिद्ध होय। कर्ममैल का आन्तरा, बूझे विरला कोय ॥
संसार में अनन्त-अनन्त आत्माएँ (जीव) हैं, केवल कर्म-बन्धनरूप उपाधि के कारण वे छोटे-बड़े, विभिन्न रूपों में सांसारिक दृष्टिगोचर होती
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