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कर्मशास्त्रों द्वारा कर्मवाद का अध्यात्ममूलक सर्वक्षेत्रीय विकास २८५
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कर्मशास्त्रों द्वारा कर्मवाद का अध्यात्ममूलक सर्वक्षेत्रीय विकास
कर्मशास्त्र में शरीरादि का वर्णन आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर
कर्मवाद के समुत्थान एवं विकास के सोपानों पर उत्तरोत्तर आरोहण में कर्मशास्त्र से सम्बन्धित समग्र साहित्य के सृजन का महत्त्वपूर्ण हाथ है। परन्तु देखना यह है कि कर्मशास्त्र के इन अंगोपांग का सृजन किस पृष्ठभूमि पर हुआ है ? यदि कर्मशास्त्र से सम्बन्धित साहित्य का सृजन केवल भौतिक दृष्टि से ही होता तो जैन- कर्मवाद का समुत्थान एवं विकास इतनी द्रुतगति से नहीं होता ।
कर्मशास्त्र में शरीरसम्बन्धी वर्णन : एक समीक्षा
कर्मशास्त्र में शरीर, उसके स्थूल सूक्ष्म प्रकार, उसके अंगोपांग, उनकी सुदृढ़ता- अदृढ़ता, वृद्धि- ह्रास, अल्पायुष्कता - दीर्घायुष्कता तथा उनसे सम्बन्धित मन, वचन और प्राण तथा इन्द्रियों आदि की बनावट, उनके विविध प्रकार एवं तन, मन, वचन, प्राण आदि की शक्तियों के प्रयोग, प्रभाव, तथा प्रवृत्तियों आदि का वर्णन है, जोकि ऊपर-ऊपर से देखने वाले को एकान्त भौतिक ही प्रतीत होता है। कई नासमझ अथवा तत्त्व से अनभिज्ञ लोग तो सहसा कह बैठते हैं कि कर्मशास्त्र जैसे आध्यात्मिक शास्त्र में शरीरसम्बन्धी वर्णन क्यों ? परन्तु जरा गहराई से सोचें तो इस भ्रान्ति का समाधान शीघ्र ही हो जाता है।
कर्मशास्त्र में जहाँ एक ओर शरीरशास्त्र का वर्णन है, वहाँ दूसरी ओर वैसे शरीरादि अवयव प्राप्त होने के मूलकारणभूत अमुक-अमुक कर्मों का भी प्रतिपादन है। अमुक कर्मों के उपार्जन से शरीर से सम्बन्धित भौतिक सुख-सामग्री प्राप्त होने का भी विधान है। साथ ही शरीरादि के बन्धनों से मुक्त होने के भी उपाय बताये गए हैं। उदाहरणार्थ - उत्तराध्ययन सूत्र बताया है-"तथा-कथित पुण्यकर्मों के फलस्वरूप वे दश प्रकार की सुख-सामग्री से युक्त होते हैं - शुभ क्षेत्र, वास्तु (अच्छा मकान), स्वर्ण, पशु,
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