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________________ कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा २८१ अधिकाधिक प्रोत्साहन भी मिला। इसके मुख्यतया दो कारण हैं- मध्ययुग के आचार्यों का ध्यान अन्यान्य विषयों से हटकर कर्मविषयक प्राकरणिक ग्रन्थों की रचना की ओर आकर्षित हुआ । फलतः उन्होंने क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ढंग से कर्मशास्त्रों को निर्मित एवं पल्लवित किया । इसलिए इन प्रकरण ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन को प्रोत्साहन मिलने का पहला कारण यह है कि कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि पूर्वोद्धृत ग्रन्थ बहुत ही विशाल एवं गहन हैं। उनमें साधारण बुद्धिवाले व्यक्ति का प्रथम तो प्रवेश ही दुष्कर है। यदि प्रवेश हो जाए तो भी उनमें से कुछ मतलब की बात निकाल लेना तो और भी दुष्कर है। अतः यदि प्रत्येक विषय को लेकर पृथक्-पृथक् कर्मग्रन्थों तथा नव्य पंचसंग्रह के दस भागों की रचना न की जाती तो कर्मविषयक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन को प्रोत्साहन नहीं मिलता। श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में ६. प्राचीन कर्मग्रन्थों की रचना, भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा भिन्न-भिन्न समय में की गई। प्राचीन षट्कर्मग्रन्थों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - ( १ ) कर्मविपाक, (२) कर्मस्तव, (३) बन्ध - स्वामित्व, (४) षडशीति, (५) शतक और (६) सप्ततिका । इन प्राचीन कर्मग्रन्थों का अनुसरण करते हुए आचार्य देवेन्द्रसूरि ने पांच नव्यं कर्मग्रन्थों की रचना की। उनके नाम भी प्राचीन कर्मग्रन्थों के जो नाम थे, वे ही दिये हैं। इतना अवश्य है कि उन्होंने प्राचीन कर्मग्रन्थ और नये में अन्तर बताने के हेतु प्रत्येक भाग के नाम के पूर्व बृहत् शब्द लगाया है। प्राचीन कर्मग्रन्थों से नवीन कर्मग्रन्थों में यह विशेषता थी कि एक तो ये प्राचीन कर्मग्रन्थों से छोटे थे, दूसरे, इनमें उनमें वर्णित कोई भी विषय छूटा नहीं है, तथा अन्य अनेक नये विषयों का समावेश भी किया गया है। उधर दिगम्बरसम्प्रदाय में पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र के सन्दर्भ में आचार्य . पुष्पदन्त और भूतबलि ने विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी में महाकर्मप्रकृति प्राभृत (दूसरा नाम कर्मप्राभृत) की रचना की। इसके छह खण्डों के नाम यों हैं - (१) जीवस्थान, (२) क्षुद्रकबन्ध, (३) बन्धस्वामित्व विचय, (४) वेदना, (५) वर्गणा और (६) महाबन्ध । इसे 'षट्खण्डागम' भी कहते हैं। इस पर अतिविस्मृत धवला टीका है। इसी तरह कषायप्राभृत (अपरनाम-पेज्जदोसपाहुड-प्रेयोद्वेषप्राभृत) की रचना आचार्य गुणधर ने की। इसमें जयधवलाकार के अनुसार निम्नोक्त १५ अर्थाधिकार हैं- (१) प्रेयोद्वेष, (२) प्रकृतिविभक्ति, (३) स्थितिविभक्ति, (४) अनुभाग-विभक्ति, (५) प्रदेशविभक्ति, (६) बन्धक, (७) वेदक, (८) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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