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________________ कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा २७९ भी विभाजित-सा हो गया। सम्प्रदाय-भेद के कारण दोनों सम्प्रदायों के मनीषियों को परम पितामह भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट कर्मतत्त्व पर मिल-बैठकर विचार-विनिमय करने का पुण्य अवसर नहीं मिला। फलतः मल तत्त्वों के विषय में मतभेद न होने पर भी उनकी परिभाषाओं, पारिभाषिक शब्दों एवं व्याख्याओं में और कहीं-कहीं तात्पर्य में यत्किंचित् अन्तर अवश्य हो गया। फिर भी दोनों संप्रदायों के विद्वानों द्वारा रचित कर्म-साहित्य में काफी साम्य है। तटस्थ दष्टि से सोचें तो जैनदर्शन की मौलिक देन कर्मवाद की गरिमा को सुरक्षित रखने में उभयसम्प्रदायीय जैनाचार्य सर्वात्मना सजग रहे। कर्मवाद के मूल हार्द को उन्होंने सुरक्षित रखा। ___कर्मवाद के विकास के सन्दर्भ में जब हम जैनधर्म की दोनों सम्प्रदायों द्वारा रचित कर्म-विषयक साहित्य पर दृष्टिपात करते हैं, तो हमें गौरव का अनुभव होता है, कि जो कर्म सिद्धान्त पारिभाषिक शब्दावलियों और गूढ़ परिभाषाओं में जटिल और दुरूह बना हुआ था, उसे कर्मवाद-मर्मज्ञों ने बहुत ही सरल. और सरस तथा लोकभोग्य बना दिया। कर्मवाद का विकासक्रम : साहित्यरचना के.सन्दर्भ में कर्मवाद का यह विकास किस क्रम से हुआ, कब-कब हुआ ? इस सम्बन्ध में अनादिकाल से प्रवाहरूप से चले आ रहे कर्मवाद का. भगवान् महावीर से लेकर अब तक ढाई हजार वर्ष से कुछ अधिक समय तक उत्तरोत्तर जो संकलन हुआ है, उस पर विचार करना आवश्यक है।. उक्त संकलन को हम तीन विभागों में विभक्त कर सकते हैं। ये ही तीन विभाग कर्मवाद के उत्तरोत्तर विकास के तीन महायुग समझे जाने चाहिए। वे तीन विभाग इस प्रकार हैं-(१) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, (२) पूर्वोद्धृत अथवा आकर कर्मशास्त्र, और (३) प्राकरणिक कर्मशास्त्र। ..(१) पूर्वात्मक कर्मशास्त्र-कर्मवाद का पूर्वात्मक रूप में संकलन कर्मवाद के विकास का प्रथम महायुग था। पूर्वात्मकरूप में संकलित कर्मशास्त्र सबसे विशाल और सबसे प्रथम हुआ था। इसका प्रतिपादन हम पहले कर चुके हैं। (२) पूर्वोदत-कर्मशास्त्र-पूर्वोद्धृत रूप में कर्मवाद के विकास का यह द्वितीय महायुग था। इसे आकर-कर्मशास्त्र भी कहते हैं। यद्यपि पूर्वात्मक कर्मशास्त्र से यह विभाग काफी छोटा है। किन्तु कर्मशास्त्र के वर्तमान अध्येताओं की दृष्टि से यह भी काफी बड़ा है। ... जब भगवान् महावीर के बाद लगभग ९०० या १000 वर्ष तक पूर्वविद्याओं का ह्रास होने लगा था, तभी ऐसा समय आ गया था कि कुछ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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