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________________ २६०. कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) प्रभु पार्श्वनाथ द्वारा कर्मवाद का रहस्योद्घाटन उस समय प्रभु पार्श्वनाथ ने जनपरिषद् के बीच अपनी प्रथम दिव्यदेशना दी जिसमें उन्होंने कषाय और विद्वेष के कटु परिणामस्वरूप होने वाले कठोर दुष्कर्मबन्ध और कर्मक्षय, कषायशमन, इन्द्रियदमन आदि करने के विविध उपायों का मार्मिक वर्णन किया । कर्मवाद का रहस्य सुनकर जनता की सुषुप्त चेतना जाग उठी। अनेक नर-नारियों ने कर्मक्षय करने के लिए विविध यम, नियम, तप, त्याग, प्रत्याख्यान अंगीकार किये। भगवान् पार्श्वनाथ ने कर्मक्षय करने के लिए उद्यत संसारविरक्त आत्माओं को मुनि दीक्षा दी । चतुर्विध संघ की स्थापना की । कर्मक्षय करने के लिए उन्होंने चातुर्याम धर्म का प्रवर्तन किया । १ इस प्रकार तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ ने विस्मृत और धूमिल हुए कर्मवाद के रहस्य का, अपने जीवन से, तथा कमठ के द्वारा चलाई हुई वैर-परम्परा के विरुद्ध शान्ति एवं समता के आचरण से, तथा अपने उपदेशों से आविर्भाव- आविष्करण किया। भगवान् महावीर द्वारा कर्मवाद का आविर्भाव भगवान् महावीर के जीवन का लेखा-जोखा तो आचारांग, कल्पसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, भगवती सूत्र, महावीर चरियं, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, महापुराण आदि शास्त्रों एवं ग्रन्थों में विशद - रूप से अंकित है। उनका जीवन एक तरह से कर्मों से- पूर्वकृत कर्मों से समभावपूर्वक जूझने और उन्हें परास्त करने वाले अजेय धर्मयोद्धा का जीवन है। भ. महावीर के सम्यक्त्वप्राप्ति के पश्चात् हुए खास-खास २७ 'भवों (नयसार के जन्म से लेकर वर्द्धमान महावीर के रूप में जन्म लेने तक के २७ जन्मों) का वृत्तान्त मिलता है। जिसमें कई जन्मों में उन्होंने कठोर कर्मबन्धन के तथा कई जन्मों में कर्मक्षय करने के अनुभव किये। इनमें मरीचि, विश्वभूति, त्रिपृष्ठ वासुदेव, सेवापरायण तपोधनी नन्दन मुनि भवों में विशेष रूप से कर्मवाद की साक्षात् अनुभूति उन्हें हुई । मरीचि के भव में वे तापस के रूप में कर्मवाद की साधना करते-करते जातिमद एवं कुलमद के कारण उस श्रेष्ठ साधना के फल से वंचित हो गए । विश्वभूति के भव में आवेशवश अंगीकृत मुनि जीवन में कठोर तपश्चर्या करके कर्मक्षय की 1 १. इसके विशेष विवरण के लिए देखिये - कल्पसूत्र, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, 'पासणाहचरिउ', और भगवान् पार्श्व एक समीक्षात्मक अध्ययन ले उपाचार्य देवेन्द्र मुनि आदि ग्रन्थ | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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