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________________ कर्मवाद का तिरोभाव-आविर्भाव : क्यों और कब २५९ कर्मवाद से अनभिज्ञ कमठ ने वैर-परम्परा बढ़ाई __भगवान् पार्श्वनाथ दीक्षित होकर विहार करते हुए एक बार जंगल में तापसों के एक आश्रम के पास पहुँचे और निकटवर्ती एक वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग करके खड़े हो गए। कमठ तापस मेघमाली देव के रूप में वहाँ आया। भगवान् पार्श्वनाथ को ध्यानस्थ खड़े देख पूर्व-वैर का स्मरण करके एकदम रोषाविष्ट होकर टूट पड़ा उन पर। कभी सिंह का, कभी हाथी का एवं कभी जहरीले सांप एवं बिच्छू का रूप बनाकर उन्हें भयंकर यातनाएँ देने लगा। . कर्म-सिद्धान्त से अनभिज्ञ तापस इस प्रकार हिंसा, रोष, एवं द्वेष तथा वैरशोधन करने लगा। किन्तु कर्मवाद के मर्मज्ञ प्रभु उस पर किसी प्रकार का रोष-द्वेष न करते हुए कष्ट को समभावपूर्वक सहते रहे। प्रभु को शान्त और निश्चल देख मेघमाली ने उत्तेजित होकर प्रचण्ड तूफान के साथ घनघोर जलवृष्टि शुरू कर दी। चारों ओर जल-प्रलय-सा हो गया। वृक्ष, आश्रम, पशु-पक्षी सब पानी में डूब गये। पानी बढ़ता-बढ़ता कायोत्सर्गस्थ प्रभु के नाक के अग्रभाग को छूने लगा। फिर भी प्रभु ध्यान में स्थिर और प्रसन्न थे। ... प्रभु के इस विकट उपसर्ग को देखकर धरणेन्द्र शीघ्र प्रभु-चरणों में पहुँचा। उसने विराट् सप्तफन फैलाकर उनके मस्तक पर छत्र कर दिया। कमल की भाँति प्रभु का आसन स्वतः ऊँचा आने लगा। फिर धरणेन्द्र ने मेघमाली देव को फटकारा-"दुष्ट। क्यों त्रिलोकनाथ आनन्दकन्द प्रभु के प्रति उपद्रव करके घोर कर्मों का बंध कर रहा है ?" यह सुन कमठ का जीव मेघमाली देव हतप्रभ होकर भाग खड़ा हुआ। परन्तु पार्श्वनाथ प्रभु के साथ इससे पूर्व कई जन्मों तक वह वैरभाव धारण करके रहा। और जहाँ कहीं दाँव चलता वह उन्हें कष्ट देने में कोई कसर नहीं छोड़ता। परन्तु कर्म-सिद्धान्त के मर्मज्ञ प्रभु उस पर दयाभाव रखकर शान्त और समभावी रहे। . जैन इतिहासकार कहते हैं-दीक्षा लेने के ८३ दिन तक भगवान् पार्श्वनाथ कठोर और उग्र कष्ट (उपसग) समभाव से सहते हुए जनपदों में विचरते रहे। चौरासीवें दिन वाराणसी के बाहर आँवले के वृक्ष के नीचे परम शुक्लध्यान करते हुए चार घनघाती कर्मों का क्षय करके वे केवलज्ञानी वीतराग बने। १. देखें-'पासणाह चरिउ' में विस्तृत वर्णन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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