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________________ २५२ कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) तथा अन्यान्य ग्रहों पर पहुँचने और वहाँ की गतिविधि जानने के लिए उसने कृत्रिम उपग्रहों का निर्माण किया। एक साथ हजारों लाखों, करोड़ों मनुष्यों के सुख-शान्ति से रहनें, अपने-अपने परिवार के साथ सुख से जीवन यापन करने एवं उसकी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए मनुष्य ने ग्राम, नगर बसाए, आवास-गृह बनाए, व्यापार के लिए दुकानें आदि खोली, किसी भी मनुष्य पर अन्याय-अत्याचार न हो, कोई भी व्यक्ति चोरी, व्यभिचार, लूट-पाट, बेईमानी, ठगी, हत्या आदि अनैतिक कुकृत्य या अपराध न कर सके, इसके लिए मनुष्य ने न्यायालय, कारागार, आरक्षक दल (पुलिस दल) आदि की रचना की। इसी प्रकार नैतिक, धार्मिक साधना सामूहिक रूप से करने तथा श्रद्धा-भक्ति को जागृत करने के लिए मनुष्यों ने विविध मन्दिर, धर्मस्थान, देवालय, तीर्थस्थल बनाए । मनुष्यों की विचारशक्ति को जागृत करने एवं आत्म-1 - चिन्तन, आत्मशक्तियों को जगाने के लिए विविध मनीषियों ने आध्यात्मिक साहित्य का सृजन किया। इस प्रकार मानव ने एक से एक बढ़कर आविष्कार जीवन के सभी क्षेत्रों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए किये। नैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, नागरिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक आदि मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में मानव ने अपनी आवश्यकता के अनुरूप नानाविध वस्तुओं का आविष्कार किया । इतना ही नहीं, कितनी ही ऐसी वस्तुएँ भी मानव ने आविष्कृत की हैं, जो सबको आश्चर्य में डालने वाली हैं। कितने ही ऐसे पदार्थों का आविष्कार भी उसने किया, जो उसके नगर, गाँव, राष्ट्र या विश्व के मानव बन्धुओं के लिए अत्यन्त हानिकारक एवं विनाशकारी हैं। कर्मवाद का आविष्कार क्यों किया गया ? निष्कर्ष यह है कि इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में हमारे समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्मवाद का आविष्कार क्यों किया ? हमारे महामनीषी तीर्थंकरों, विश्वहितैषी महापुरुषों एवं सर्वज्ञों को कर्मवाद को आविर्भूत (आविष्कृत) करने की क्या आवश्यकता थी ? आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव आदि के समक्ष कौन-सी ऐसी परिस्थितियाँ थीं, कौनसी ऐसी आवश्यकताएँ थीं अथवा कौन-सी ऐसी विवशताएँ या अपेक्षाएँ थीं, जिनके कारण उन्हें कर्मवाद सम्बन्धी इतना सूक्ष्म चिन्तन जगत् के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ा ? प्रश्न बहुत ही सामयिक है, और बुद्धिग्राह्य भी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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