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________________ २४६ . कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) जीव मरकर परलोक में वनस्पति आदि के जीवों में जन्म ग्रहण करता है। यद्यपि इस मान्यता को अन्धविश्वास (Superstition) कहकर प्रो. हिरियन्ना ने निराकृत कर दिया था। मगर तथ्य यह है कि जिस कर्मवाद को वैदिक देववाद, यज्ञवाद आदि से विकसित एवं समन्वित नहीं किया जा सका, उस कर्मवाद का मूल आदिवासियों के उक्त मत से आसानी से सम्बद्ध होता है। इस तथ्य की सत्यता का पता उस समय लगता है, जब हम जैनधर्मसम्मत कर्मवाद और आत्मवाद के गहन मूल को खोजने का प्रयत्न करते हैं। निष्कर्ष यह है कि जैनधर्मसम्मत कर्मवाद की परम्परा का चाहे जो नाम हो, वह उपनिषदों से स्वतंत्र और पुरातन है। वैदिको पर जैन परम्परा के कर्मवाद का प्रभाव __ जैनदर्शन के उद्भट विद्वान पं. दलसुख मालवणिया का यह मन्तव्य यहाँ विचारणीय है___ "अतः यह मानना निराधार है कि उपनिषदों में प्रस्फुटित होने वाले कर्मवाद विषयक नवीन विचार जैन-सम्मत कर्मवाद के प्रभाव से रहित हैं। जो वैदिक परम्परा देवों के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ती थी, वह कर्मवाद के इस सिद्धान्त को हस्तगत कर यह मानने लगी कि फल देने की शक्ति देवों में नहीं, प्रत्युत स्वयं यज्ञकर्म में है। वैदिक विद्वानों ने देवों के स्थान पर यज्ञकर्म को आसीन कर दिया। देव और कुछ नहीं, वेद के मंत्र ही देव हैं। इस यज्ञकर्म के समर्थन में ही अपने को. कृतकृत्य मानने वाली दार्शनिक काल की मीमांसक विचारधारा ने तो यज्ञादि कर्म से उत्पन्न होने वाले 'अपूर्व' नाम के पदार्थ की कल्पना कर वैदिक दर्शन में देवों के स्थान पर अदृष्ट कर्म का ही साम्राज्य स्थापित कर दिया।" यदि हम इस समस्त इतिहास को दृष्टि-सम्मुख रखें तो “वैदिकों पर जैनपरम्परा के कर्मवाद का प्रभाव स्पष्टतः प्रतीत होता है।" अदृष्ट की कल्पना भी वेदेतर प्रभाव का परिणाम "वैदिक परम्परा के लिए अदृष्ट अथवा कर्म का विचार नवीन है और बाहर से उसका आयात हुआ है, इस बात का एक प्रमाण यह भी है कि वैदिक लोग पहले आत्मा की शारीरिक, मानसिक क्रियाओं को ही 'कर्म' मानते थे। तत्पश्चात् वे यज्ञादि बाह्य अनुष्ठानों को भी 'कर्म' कहने लगे। किन्तु ये अस्थायी अनुष्ठान स्वयमेव फल कैसे दे सकते हैं ? उनका तो उसी समय नाश हो जाता है। अतः किसी माध्यम की कल्पना करनी चाहिए। १. इसके उल्लेख और खण्डन के लिए देखिये 'Outlines of Indian Philosophy'-P.79 (Prof. Hiriyanna) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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