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________________ कर्मवाद का आविर्भाव २४५ रहित निष्काम, सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से रहित, नित्य वस्तु में स्थित तथा योग-क्षेम से निःस्पृह होकर आत्मपरायण बन" । कर्मवाद का मूल स्रोत संसार और अदृष्ट के ये वेदवादविरुद्ध विचार वैदिक साहित्य के अंग माने जाने वाले उपनिषदों में कहाँ से आए ? वैदिक परम्परा के विचारों से ही ये विचार प्रादुर्भूत हुए, अथवा अवैदिक परम्परा के विचारक मनीषियों से ये विचार वैदिक मनीषियों द्वारा लिये गए ? इस तथ्य का निर्णय अभी तक आधुनिक विद्वान् एवं दार्शनिक नहीं कर पाए। यह निर्विवाद है कि उपनिषदों से पूर्वकालीन वैदिक साहित्य में कहीं भी सृष्टि और अदृष्ट की चर्चा नहीं मिलती। उपनिषदों में भी स्पष्टरूप से 'कर्म' शब्द का पुण्य-पापकर्म के अर्थ में उल्लेख नहीं मिलता। कहीं-कहीं 'कर्म' शब्द (कुर्वन्नेह कर्माणि ) आता है, वह कार्य करने अर्थ में है। यही कारण है कि उपनिषदों ने भी कर्म को सष्टि की विविधता का कारणरूप सर्वसम्मत वाद नहीं माना। अतः इसे वैदिक परम्परा का मौलिक वाद या विचार नहीं माना जा सकता। श्वेताश्वतर उपनिषद् में जहाँ काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत अथवा पुरुष आदि अनेक कारणों का अथवा इन सबके संयोग का कथन है, वहाँ इन कारणों में 'कर्म' का उल्लेख नहीं है। इसलिए विद्वानों के लिए यह अवश्य अन्वेषणीय है कि कर्म या अदृष्ट तत्त्व का वैदिक परम्परा में किस परम्परा से आयात हुआ ? ___कतिपय विद्वानों का मत है कि आर्यों ने ये विचार भारत के आदिवासियों से ग्रहण किये। आदिवासियों का यह मत था कि मनुष्य का १. बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥४१॥ यामिमां पुष्पितां वाचं, प्रवदन्त्यविपश्चितः । वेदवादरताः पार्थ! नान्यदस्तीति वादिनः ॥४२॥ कामात्मानः स्वर्गपरा जन्म-कर्मफल प्रदाम् । क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ।।४३ ।। भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयाऽपहृत-चेतसाम् । व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥४४॥ त्रैगुण्य विषया वेदा, निस्वैगुण्यो भवार्जुन ! निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥४५॥ - भगवद्गीता अ. २, श्लो. ४१ से ४५ तक २. "कुर्वनेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।" - ईशोपनिषद् ३. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम्। संयोग एषां न स्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुख-दुःख हेतुः ॥- श्वेताश्वतर उपनिषद् Jain Education international For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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