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________________ अध्यात्म-शक्तियों के विकास का उत्प्रेरक : कर्मवाद २११ पहले आत्महित है उसके पश्चात् ही परहित है। परहित गौण है, आत्महित ही मुख्य है । ' भारतीय अध्यात्म एवं धर्म का इतिहास एवं साहित्य इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है कि आध्यात्मिक अन्वेषण, अनुसन्धान, शोध, गवेषणा, एवं तदनुसार आत्मकल्याण की साधना ही उन महामनीषी महापुरुषों के जीवन का एकमात्र अभीष्ट लक्ष्य रहा है। इसी आध्यात्मिक दृष्टि, आध्यात्मिक उत्क्रान्ति और आध्यात्मिक प्रेरणा के द्वारा भारतवर्ष ने सारे विश्व का नेतृत्व किया और विश्व के आध्यात्मिक गुरु के महत्वपूर्ण पद को अलंकृत किया। भारत की पुण्यभूमि पर सभ्यता और संस्कृति की, धर्म और अध्यात्म की, आध्यात्मिक चिन्तन-मनन की, दर्शन और धर्म की तथा संस्कृति और नीति की विचारधारा आदिकाल से ही सुरसरिता गंगा की पावन धारा की तरह अबाधगति से बहती चली आ रही है। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध और जैन प्रभृति अनेक दर्शनों और वैदिक, जैन, बौद्ध आदि धर्मों ने यहाँ जन्म ग्रहण किया। ये सभी यहाँ पुष्पित- फलित हुए। इन सबकी विचारधाराएँ आसेतु हिमालय तक फैलीं। उस युग सभी वर्ग के लोगों ने समुद्र से भी अधिक गम्भीर एवं गगन से भी व्यापक उस अध्यात्म विद्या का आचमन किया। इतना ही नहीं, यहाँ के मनस्वी तत्त्वज्ञानियों ने आत्मा-परमात्मा, इहलोक-परलोक, कर्म-अकर्म, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, आदि कमनीय तत्त्वों की गगन- विहारी कल्पना एवं प्रेरणा ही नहीं की, जीवन के गम्भीर एवं अटपटे प्रश्नों पर भी अपनी युक्ति, अनुभूति और सूक्ति के आधार पर विवेचन, एवं विश्लेषण किया है, स्वयं भी उन तथ्यों पर अनुशीलनपरिशीलन किया है। उन्होंने अध्यात्मविद्या का गौरव गान भी किया और स्वयं भी आत्मा से परमात्मा बनने में आम्रव, बन्ध आदि बाधक तत्त्वों से दूर रहकर समता, क्षमा, संयमशीलता, तप, त्याग, वीतरागता, संवर एवं निर्जरा के आग्नेय पथ पर अग्रसर हुए। १. आदहिदं कादव्वं २. परिसह - रिउ - दन्ता, धूयमोहा जिइन्दिया । सव्वदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो ॥ दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहित्तु य । इत्थ देवलोएसु, केइ सिज्झन्ति नीरया ॥ खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुपत्ता, ताइणो परिणिव्वुडा ॥ Jain Education International 4000 - दशवैकालिकसूत्र अ. ३ गा. १३-१४-१५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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