SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) यही कारण है कि उन महामनीषियों ने सभी साधकों को सावधान कर दिया कि प्रत्येक कदम विवेकयुक्त हो तथा फूंक-फूंक कर कदम रखो, तुम्हारे चारों ओर बन्धन और पाश के स्रोत हैं, यदि तुमने जरा-सी भी असावधानी (प्रमाद) की तो उनमें फंस जाओगे। उन महर्षियों ने अपने अनुभवज्ञान में देखा कि आत्मा जब प्रमादयुक्त होकर अपने शुद्धस्वरूप को छोड़ देता है, साधना-पथ पर चलता हुआ भी असावधानी रखता है, राग-द्वेष-मोह आदि विजातीय पदार्थों-परभावों के चक्कर में पड़ जाता है, तब वह उनसे बंध जाता है, अध्यात्म-दृष्टि को चूक जाता है, उसके फलस्वरूप उसे जन्म-मरणरूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। इसीलिए उन्होंने अपने अनुगामी साधकों को सावधान करते हुए कहा-"ऊर्ध्वदिशा में स्रोत (शुभाशुभकर्मप्रवाह) हैं, अधोदिशा में स्रोत हैं, तिर्यक दिशाओं में भी स्रोत हैं। इन्हें देखो। इन्हें ही शुभाशुभ कर्मप्रवाह (स्रोत) कहा गया है, जिनसे आत्मा के साथ (कर्मों का) संग-बन्ध होता है।"२ यही कारण है कि उन्होंने कहा-"दया, क्षमा, समता, मृदुता आदि आत्मगुणों की साधना करते समय भी पहले इन सब गुणों का सम्यग्ज्ञान और फिर दया (क्षमादि गुणों का आचरण), इस प्रकार सभी संयमी साधक आत्मभावों में स्थित होते हैं। बेचारा अज्ञानी क्या कर सकता है ? वह कैसे जान सकेगा कि क्या श्रेय है क्या पाप ?" इस प्रकार उन प्रतिभासम्पन्न अध्यात्मविज्ञों ने अध्यात्म क्षेत्र के प्रत्येक पहलू का सम्यक् अध्ययन-मनन-चिन्तन किया और जिस चिरन्तन सत्य का साक्षात्कार किया, अपने जीवन को भी उसी सांचे में ढाला। उन्होंने आत्मा के साधक-बाधक पदार्थों का, आत्मा के लिए हित-अहित, कल्याण-अकल्याण, श्रेय-प्रेय, लाभ-अलाभ, गुण-अवगुण इत्यादि तत्त्वों का विश्लेषण करते हुए आत्म-हितकर पदार्थों एवं तत्त्वों का आश्रय लिया। संसार के समक्ष अपनी अनुभूतियों की प्रभास्वर रश्मिमाला प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा-"सदैव आत्मा का हित ही सोचना और करना चाहिए। १. चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मन्नमाणो । -उत्तराध्ययन अ.४, गा.७ २. उड्ढ सोया अहे सोया, तिरिय सोया वियाहिया। एए सोया वि अक्खाया जेहि संगति पासहा। -आचारांग सूत्र श्रु. १, अ. ६, उ. ५ ३. पढम नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किंवा, नाही उ सेय-पावगं॥ -दशवैकालिक सूत्र अ. ४ गा. १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy