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________________ कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित १९७ व्यक्तियों पर अकस्मात् हार्टफेल, ब्रेन हेमरेज, हृदयरोग का आक्रमण आदि हो जाता है, कई बार वे स्वयं विक्षिप्त या अर्ध विक्षिप्त होकर या मानसिक सन्तुलन खोकर आत्म-हत्या तक कर बैठते हैं। इन सारे पापकर्मों या दुष्कृत्यों के फल प्रत्यक्ष अनुभव में आने पर भी जो व्यक्ति कर्म और कर्मफल के अस्तित्व के विषय में श्रद्धाहीन बना रहता है, समझना चाहिए, वह अपने लिए स्वयं दुर्गति का द्वार खोलता है।' कर्मफल विलम्ब से मिले तो भी उसके अस्तित्व के प्रति श्रद्धा रखो कर्मफल तत्काल न मिलने, देर से मिलने या इस जन्म में न मिलने के कारण कई अधीर लोग आस्था खो बैठते हैं, और विलम्ब होने के कारण वे दण्ड से बचे रहने की बात सोचते हैं, मगर पापकर्मों का दण्ड किसी न किसी रूप में मिलता ही है, इस विषय में सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से साक्षी देते हैं। तत्काल फलवादियों के अव्यवहार्य कुतर्क कई तत्काल फलवादी कह बैठते हैं - हम तो कर्म और कर्मफल को तभी सत्य मानें और कर्म के अस्तित्व में तभी आस्था रखें, जब इधर कर्म करें और उधर उसका फल मिल जाए। यदि कुमार्गगामियों की चलनेफिरने की शक्ति तत्काल खत्म हो जाती, षड्यंत्रकारियों की स्मरणशक्ति उसी क्षण नष्ट हो जाती, उद्दण्डता करने वाले को तत्काल असाध्य व्याधियाँ घेर लेतीं, डकैती करने वाले को उसी दिन लकवा मार जाता, भ्रष्टाचारी तत्काल दरिद्र हो जाता, तो फिर किसी को धोखाधड़ी, ठगी, चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार, जालसाजी, उद्दण्डता या षड्यंत्रकारिता सूझती ही नहीं, किसी को पापकर्म या अनैतिक दुष्कृत्य करने का साहस ही न होता। इसी प्रकार सज्जनों को उनके द्वारा अपनाई गई सत्प्रवृत्तियों, सत्कार्यों के फलस्वरूप सम्पन्नता, विद्वत्ता, नीरोगता एवं सफलता जैसे लाभ मिल जाया करते तो उन्हें भी सत्कर्मों के प्रति अरुचि, अनुत्साह या निराशा न होती। समाधान और अनुभव इस अव्यवहार्य तर्क का समाधान यह है कि यदि कर्मों के प्रत्यक्ष फल प्राप्त होने की कठोर व्यवस्था संसार में होती तो फिर धर्मशास्त्रों, १. (क) अखण्ड ज्योति जून १९७७ से सार संक्षेप ... (ख) पापेन जायते व्याधिः, पापेन जायते जरा। पापेन जायते दैन्य, दुःख शोको भयंकरः ।। -मनुस्मृति २. (क) अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९७७ से सार संक्षेप (ख) समतायोग पृ. ५०१ से सार संक्षेप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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