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________________ १९६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) पापकर्म छिप नहीं सकते पाप और पारा छिप नहीं सकता, वह देर-सबेर में फूट-फूट कर बाहर निकलता ही है। जैसे हींग की गन्ध कई थैलियों में बन्द करके रखने पर भी फैलती है, वैसे ही पापकर्मों या दुष्कर्मों की दुर्गन्ध हवा में इस तरह फैलती है कि वह छिपाने पर भी नहीं छिपती। कहावत है . "पाप छिपाये ना छिपे, छिपे तो मोटा भाग। दाबीबी ना रहै, रुई-लपेटी आंग।" एक सवैया में इस तथ्य को एक विचारक कवि ने अनावृत किया है - “तारों की ज्योति में चन्द्र छिपे नहीं, सूर्य छिपे नहीं बादल छाये। इन्द्र की घोर से मोर छिपे नहीं, सर्प छिपे नहीं पूंगी बजाये। जंग जुड़े रजपूत छिपे नहीं, दातार छिपे नहीं मांगन आए। जोगी का वेष अनेक करो पर, ____ कर्म छिपे न भभूत रमाए ।" दुष्कर्मी समाजदण्ड, राजदण्ड और प्रकृतिदण्ड पाता है __ कई बार ऐसे दुष्कर्मी को समाज के द्वारा प्रतिशोध, प्रत्याक्रमण और आक्रोश के रूप में उग्रदण्ड मिलता है। बहुधा ऐसे लोग मित्रविहीन, समाज बहिष्कृत, एकाकी एवं नीरस जीवन जीते हैं। आत्मप्रताड़ना और नैतिक मृत्यु तो ऐसे लोगों की पद-पद पर होती है। कदाचित् ऐसा व्यक्ति समाजदण्ड से किसी तरह बच जाए किन्तु कितनी ही चतुरता बरतने पर भी वह कभी न कभी शासकीय दण्ड की पकड़ में आ ही जाता है। दुष्कर्मी लोगों का दमन करने के लिए ही कोर्ट-कचहरी, पुलिस, जेल, फाँसी आदि शासकीय दण्ड की व्यवस्था है। राजदण्ड में आर्थिक, शारीरिक, मानसिक यातनाएँ दुष्कर्मी को प्राप्त होती हैं। कभी-कभी अपने दुष्कर्मों के फलस्वरूप वे बदनाम भी होते हैं और नागरिक अधिकारों से भी वंचित हो जाते हैं। दुष्कर्म इतने पर भी उसका पिण्ड नहीं छोड़ते। कई बार दुष्कर्मी लोगों को अनेक शारीरिक व्याधियाँ तथा चिन्ता, तनाव, भय आदि मानसिक व्याधियाँ आ घेरती हैं जो रिबा-रिबाकर मारती हैं। कई बार ऐसे १. अखण्ड ज्योति, जून १९७७ से सार संक्षेप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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